प्रणव प्रियदर्शी
आजकल तृणमूल नेता ममता बनर्जी, लेखिका अरुंधती राय, स्वामी अग्निवेश नक्सलियों के साथ बातचीत को लेकर चर्चा में हैं। इन सबके जरिए, खासकर अरुंधती रॉय के जरिए नक्सलवाद पर बुद्धिजीवियों और मीडिया जगत को गलत पाठ पढ़ाने की कोशिश चल रही है। गृह मंत्री पी. चिदंबरम और बीजेपी नेता अरुण जेटली से लेकर टीवी चैनलों पर आने वाले सुरक्षा विशेषज्ञ तक सभी इस बात का एलान करते दिखते हैं कि नक्सलियों को गौरवान्वित करने वाले ऐसे बुद्धिजीवियों को भी सबक सिखाने की जरूरत है। यह बात अलग-अलग तरीकों से जोर देकर दोहराई जा रही है कि नक्सलियों के खिलाफ मुहिम हर मोर्चे पर तेज की जानी चाहिए और यह कि नक्सलियों के समर्थन में किसी भी तरह के तर्क को सहन नहीं किया जाना चाहिए।
कुछ दिनों पहले नक्सलियों के ही मसले पर इससे मिलती-जुलती-सी बात आंध्र प्रदेश में भी उठी थी। तब आंध्र पुलिस ने पत्रकारों को सलाह दी थी कि वे नक्सली नेताओं से इंटरव्यू न लें, बल्कि अगर उनके पास नक्सली नेताओं के बारे में कोई सूचना हो तो वे पुलिस को दें। आंध्र के पत्रकारों ने इस सलाह पर कड़ा एतराज जाहिर करते हुए कहा था कि हम पुलिस के इन्फॉर्मर नही हैं। पत्रकार का काम पुलिस को नही, बल्कि जनता को इन्फॉर्म करना होता है। इसीलिए बेहतर यही होगा कि पुलिस नक्सलियों को पकड़ने का अपना काम करे और पत्रकारों को अपना काम करने दे।
यही वह बिन्दु है जो पत्रकारों को पुलिस से बुनियादी तौर पर अलग करता है। इसे ठीक से समझ लेना चाहिए। पुलिस इस तंत्र का एक हिस्सा है जिसका काम इस व्यवस्था को बनाए रखने में मदद करना है। वह सरकार के अधीन होती है, सरकार से ताकत लेती है। इसके विपरीत पत्रकार जनता से ताकत लेते हैं। बतौर कर्मचारी बेशक वे अपने संस्थान के मालिक या मैनेजमेंट से बंधे होते हैं, पर जहां तक उनके पत्रकारीय दायित्वों की बात है तो उसकी आखिरी कसौटी हमेशा पाठक-दर्शक ही होते हैं।
लोकतंत्र में संप्रभुता जनता में निहित होती है और पत्रकार सीधे जनता को रिपोर्ट करते हैं। इसीलिए सरकार की नाराज़गी से उनकी सेहत पर ख़ास फर्क नही पङता। अरुण शौरी जैसे पत्रकार अगर प्रधान मंत्री की नाराजगी मोल लेते हुए भी शान से पत्रकारिता करते रहे तो उसका कारण यही है कि जनता ने उनको मान्यता दी और तत्कालीन सरकार की मर्जी के ख़िलाफ़ दी। यही बात मौजूदा विवाद पर भी लागू होती है।
यहां सवाल यह नहीं है कि नक्सली कितने सही या गलत हैं और न ही यह कि क्या किसी भी सूरत में नक्सली हिंसा को जायज़ ठहराया जा सकता है? सवाल यह है कि नक्सलियों का जो भी कहना है वह सही है या गलत, इस पर आखिरी फैसला कौन करेगा? जवाब यह है कि ऐसे विचारधारात्मक मसलों का अंतिम फ़ैसला सरकार या सरकारी तंत्र के विवेक पर नही छोड़ा जा सकता। लोकतंत्र में, आपको अच्छा लगे या बुरा, पर इसका अंतिम फ़ैसला जनता के ही पास होता है। वह मौजूदा सरकार ही नही, संविधान तक के भविष्य पर विचार करके फैसला कर सकती है।
लेकिन इसी से लगा हुआ दूसरा सवाल यह है कि जब तक जनता अपना निर्णायक फैसला नहीं देती तब तक क्या किया जाए? क्या तब तक किसी ग्रुप या कथित पार्टी को जनता के नाम पर अराजकता फैलाने की छूट दे दी जाए? साफ है कि कोई भी सरकार ऐसी छूट नहीं दे सकती और न ही उसे ऐसी कोई छूट किसी को देनी चाहिए। इसीलिये यह व्यवस्था की गयी है कि पुलिस समेत शासन के तमाम अंग अपना काम करते रहें और पत्रकार भी इन तमाम चीजो के बारे में जनता को रिपोर्ट करते रहें।
समस्या तब पैदा होती है जब शासन या इसका कोई अंग (जैसे पुलिस) पत्रकारों को स्वतंत्र तरीके से अपना काम करने से रोकने की कोशिश करता है या अपनी वजहों से इसमे बाधा खड़ी कर देता है। अरुंधती के लेखन से या उनके स्टैंड से सहमत या असहमत होना अलग बात है और इस तथ्य को रेखांकित करना एकदम अलग कि मौजूदा लोकतांत्रिक व्यवस्था द्वारा खींची गई लक्ष्मण रेखा का उल्लंघन अरुंधती ने नहीं किया बल्कि वे लोग कर रहे हैं जो उनके लेखन को रोक देना चाहते हैं।
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