Monday, 14 November 2011

मीडिया की नादानी और काटज़ू का डंडा

प्रणव प्रियदर्शी

जस्टिस मार्कंडेय काटजू ने जब से मीडियाकर्मियों की कमियां गिनाई हैं, देश में उनके प्रशंसकों की बाढ़ आ गई है। अचानक वह उन सब लोगों के हीरे बन गए हैं जो मीडिया का सबसे ज्यादा इस्तेमाल करते हैं और इसलिए इससे सबसे ज्यादा ऊबे हुए भी हैं। टीवी न्यूज ज्यादा देखने वाले लोग, अखबार ज्यादा पढ़ने वाले लोग ही मीडिया के सबसे बड़े आलोचक हैं। जाहिर है, जो चैनल बदल-बदल कर खबरें देखते हैं और जो एक से ज्यादा अखबार पढ़ते हैं, उन्हें ही इस बात का ज्यादा पता होता है कि किस अखबार या चैनल ने खबर को किस अंदाज में पेश किया। इस आधार पर वे इस बारे में भी राय बनाने की स्थिति में होते हैं कि खास अंदाज में खबरें पेश करने के पीछे खास चैनल या अखबार का क्या हित हो सकता है। जाहिर है, ऐसे पाठक-दर्शक ही मीडिया के बारे में सही या गलत या आधा सही-आधा गलत जैसी भी कहें, राय रखते हैं।


दूसरे शब्दों में कहें तो यह साफ है कि मीडिया का जो सबसे बड़ा आलोचक वर्ग है, उसे ही मीडिया का सबसे ज्यादा फायदा भी हो रहा है। आखिर, राजनीति, सरकार, प्रशासन, व्यापार, खेल, सिनेमा, करप्शन, आंदोलन - इन सबसे जुड़ी हकीकत लोगों तक पहुंच तो रही है। यहां तक कि खबरें पहुंचाने वालों की हकीकत भी पहुंच रही है (तभी तो वे मीडिया का नाम सुनते ही भड़क जाते हैं)।


जस्टिस काटजू चाहे न मानें, उनके नए बने फैन भी न स्वीकार करें, पर यह भारतीय मीडिया की नाकामी नहीं बल्कि उसकी कामयाबी का सबूत है। कुछ कार्यों की प्रकृति ही ऐसी होती है कि करने वाले को तारीफ मुश्किल से मिलती है। और, निंदा तो जैसे उनका इंतजार ही कर रही होती है। हमारे शहर के सफाईकर्मी कुछ काम भी करते हैं, इसका अंदाजा हमें उसी दिन मिलता है जब वे हड़ताल पर जाते हैं। कुछ ऐसा ही हाल मीडियाकर्मियों का भी है। हमें उनकी अहमियत तब पता चलती है जब हम उनकी सेवाओं से दूर हो जाते हैं।


एक राष्ट के रूप में हमने आपातकाल के दौरान सेंसरशिप का स्वाद चखा था और ऐसा सबक सीखा कि अब कोई सेंसरशिप की बात भी नहीं करता। मगर, इस बीच एक ऐसी पीढ़ी आई है जिसने आपातकाल के बारे में थोड़ा-बहुत सुना भर है। 24 घंटे के न्यूज चैनलों के अलावा फेसबुक और ट्विटर तक -उसके सामने मीडिया के नए-नए रूप तो हैं, अभिव्यक्ति की असीम लगने वाली आजादी भी है, उसके दुष्प्रभाव भी है, मगर इन सबका अभाव कैसा होता है या कैसा हो सकता है, इसका कोई अनुभव उसके सामने नहीं है। न ही, इसकी कोई संभावना उसे दिख रही है। लिहाजा, वह मीडिया की खामियों से त्रस्त है और हर हाल में बस उसी से निजात पाना चाहती है। जस्टिस काटजू की बातें उसे मरहम प्रतीत होती हैं।


मगर, यह याद रखना जरूरी है कि जैसे हर चमकती हुई चीज सोना नहीं होती, वैसे ही हर कड़वी बात सौ फीसदी खरी नहीं होती। जस्टिस काटजू कभी सुपीम कोर्ट के जज थे, आज वह प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया के चेयरमैन हैं। जिस शख्स को मीडिया का फ्रेंड, फिलॉसफर ऐंड गाइड बनना है, वह मीडिया को डंडे से हांकना चाहता है। जस्टिस काटजू बाकायदा एलान कर चुके हैं कि डंडा तो उन्हें चाहिए, वह उसे अपने पास रखना चाहते हैं। दयापूर्वक वह कहते हैं कि इसका इस्तेमाल वह पांच फीसदी के खिलाफ ही करेंगे।


और क्यों भला? इसलिए क्योंकि बकौल जस्टिस काटजू मीडियाकर्मी पढ़े-लिखे नहीं हैं। उन्हें न दर्शन का ज्ञान है, न साहित्य का, न राजनीतिक विचारधाराओं का। उनके मुताबिक मीडिया को मुद्दे भी नहीं पता। वह देश की गंभीर समस्याओं पर बात करने के बदले चमक-दमक और सिलेब्रिटीज के नाज-नखरों की बातें ज्यादा करता है।


ज्यादा समय नहीं हुए जब इसी मीडिया ने नाज-नखरों की चिंता छोड़ करप्शन विरोधी आंदोलन को अपना पूरा समय अर्पित कर दिया था। तब सरकार की भी नींद हराम हो गई थी। बहरहाल, जस्टिस काटजू की आलोचना में छिपी सचाई से इनकार नहीं किया जा सकता। इसमें दो राय नहीं कि मीडिया को अपनी कमियां दूर करनी होंगी। लेकिन, इसमें भी कोई संदेह नहीं कि यह काम जस्टिस काटजू के डंडे के जरिए नहीं हो सकता। अगर मीडिया को डंडे से ठीक करने की कोशिश की गई और मीडिया ने इसे स्वीकार कर लिया तो फिर वह मीडिया रह ही नहीं जाएगा जो अपनी तमाम कमजोरियों के बावजूद आज भी मौजूदा लोकतांत्रिक ढांचे की रीढ़ बना हुआ है।


दूसरी बात यह कि आखिर जस्टिस काटजू को किस लिहाज से मीडिया से ऊपर माना जाए? वह मीडिया पर अज्ञानता का आरोप लगाते हैं, लेकिन उनके उस ज्ञान पर ही कैसे भरोसा किया जाए जिसने उन्हें उस विनम्रता तक से वंचित कर दिया जो ज्ञान की पहली विशेषता मानी गई है? मीडियाकर्मी तो मान लिया अज्ञानी हैं, पर ज्ञानी जजों का ही व्यवहार कितना आदर्श रहा है यह बात सुप्रीम कोर्ट की ही एक रिटायर्ड जज (जस्टिस रूमा पाल) हमेंपिछले सप्ताह (तारकुंडे मेमोरियल लेक्चर में) बता चुकी हैं।


सौ बात की एक बात यह है कि जैसे जूडिशरी की गड़बड़ियों का इलाज यह नहीं है कि उसे सरकार के अधीन कर दिया जाए वैसे ही मीडिया की गड़बडि़यों का इलाज यह नहीं है कि उसे किसी जस्टिस काटजू के डंडे से हंकने के लिए मजबूर किया जाए, भले वह जस्टिस काटजू प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया का अध्यक्ष ही क्यों न हो। हां, यह सवाल जरूर है कि मीडिया की अंतर्निहित विशेषताओं से इस कदर अनजान और प्रेस की गरिमा के प्रति इस हद तक संवेदनहीन किसी शख्स को प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया के अध्यक्ष जैसे पद पर बने रहना चाहिए या नहीं भले वह शख्स जस्टिस काटजू जैसा ज्ञानी ही क्यों न हो
(नवभारत टाइम्‍स क्स ब्लॉग अंधेर नगरी से साभार )


4 comments:

  1. pranava ji, ek shakhs to hai jisne sach bolne ki himmat kee aur aap sb uske peechhe hee pad gaye. patrakaar to mai bhee hoon,pr mai maanta hoon ki justice katzoo ka satkaar hona chahiye. aur yah kaam kisi patrakaar sangathan ke haatho hona chahiye... tabhee patrakaaron ki bhee ijjat badhegi. unhe gaali dene se nahi.

    ReplyDelete
  2. मेरा भी मानना है कि पत्रकारिता में वास्तविक रूप से पढ़े लिखे कम लोग हैं। मैंने मीडिया हाउसों में होनेवाली पत्रकारों की चर्चाएं सुनी है और देखा है कि उनका मेंटल लेवल क्या है। और सबसे चौंकानेवाली बात हिंदी मीडिया की है। वहां तो 95 फीसदी अज्ञानी हैं। उन्हें किसी चीज की जानकारी नहीं है। आप देखिए ना मैंने कई बार राजधानी के मशहूर अखबारों में देखा है दिग्विजय सिंह (मध्य प्रदेश के मुख्य मंत्री) की जगह दिग्विजय सिंह (बिहार के मरहूम सांसद) की फोटो लगी हुई है। मुझे लगता है कि मीडिया में पढ़े लिखे और जानकार लोगों का होना बहुत जरूरी है। यह संवेदनशील और बहुत ही जिम्मेदारी भरा काम है और इसे अज्ञानी लोगों के हाथों में नहीं छोड़ना चाहिए। जस्टिस काटजू ने सही बात कही है और इसे हमें स्वीकार करना चाहिए। हां उनके कहने का तरीका गलत हो सकता है, पर बात उन्होंने गलत नहीं कही है। काटजू ने जो बातें कही हैं, वह बात कोई पत्रकार कहता तो मुझे ज्यादा खुशी होती।

    ReplyDelete
  3. maalanch aur prem.. aap dono ka dhanyavaad. apni raay prakat karne ke liye... magar yahan baat sirf justice kaatzu ke tareeke ki nahi hai.media ki swatantrataa ki bhee hai. gyaani hamesha sahi kaam hee nahi karte.. to agar gaaniyo ko media pr danda chalane ka adhikar de diya jaaye to faisle to danda karne lagega. fir us dande ko kaun theek karega? aur fir loktantra ka bhavishya kya hoga?

    ReplyDelete
  4. Justice Katju has hit where it hurt most and I appreciate most of his criticism. However, I can't buy his audacity when he wondered the front-page coverage to the news about death of Dev Anand. Universally accepted standards of News Value justify this coverage but the noted justice is ignorant of the principles of news and still heading the Press Council of India.
    Sunil Tambe

    ReplyDelete