मालंच
सीएनएन-आईबीएन-आईबीएन 7 के 350 पत्रकार - गैर
पत्रकार कर्मचारियों की छंटनी ने दिल्ली के पूरे मीडिया जगत को सकते में डाल दिया
है। चर्चा यह है कि अभी और 200 लोगों की छंटनी होनी है। जो अपनी नौकरी गंवा चुके,
उनके सामने तो वैकल्पिक रोजगार की समस्या मुंह बाए खड़ी हो ही चुकी है, बाकी लोग
इस आशंका में हलाकान हैं कि कहीं अगली सूची में उनका नाम न हो। इस ग्रुप से बाहर
के, अन्य मीडिया संस्थानों में काम कर रहे लोग भी इस भू स्खलन की खबर से
पसीने-पसीने हो गए हैं। सबको पता है, यह कोई ऐसी अनोखी बात नहीं है जो एक ग्रुप
में हुआ और दूसरे ग्रुप में नहीं हो सकता। किसी भी वक्त किसी भी ग्रुप का प्रबंधन
ऐसा फैसला कर सकता है। और जैसे हालात बनते जा रहे हैं, उसमें उसे प्रतिरोध की
रत्ती भर भी आशंका रखने की जरूरत महसूस नहीं होगी।
इस फैसले में भी संस्थान के अंदर और बाहर
प्रतिरोध की कवायद शुरू करने की कोशिश में लगीं ताकतें जिस अवस्था में हैं उसे
देखते हुए प्रबंधन उनसे सहमना तो दूर, उन पर दया ही करेगा। मगर प्रतिरोध की बात
करने से पहले इस कदम के कुछेक महत्वपूर्ण पहलुओं पर बात कर लेना बेहतर होगा।
प्रबंधन की तरफ से इस जनसंहार की प्रत्यक्ष
या परोक्ष रूप से तीन वजहें बताई जा रही हैं। एक, ग्रुप को हो रहा आर्थिक घाटा, दो
ट्राई के एक घंटे में अधिकतम दस मिनट का विज्ञापन दिखाने से जुड़ा निर्देश जिससे
कंपनी का राजस्व कम हो जाएगा और तीन, हिंदी और अंग्रेजी के अलग-अलग रिपोर्टर रखना
संसाधन की बर्बादी है।
इन तीनों कथित कारणों की धज्जियां उड़ाई
जा चुकी हैं। (उदाहरण के लिए यह लिंक देखे )
सच यह है कि इस तरह के बहाने बनाकर कोई भी
समूह अपनी लागत कम करने की कोशिश करता है। लागत कम करना उसके अधिकतम संभव लाभ के
उसके तर्क के अमलीकरण के लिए अपरिहार्य होता है। वरना गलाकाट प्रतिस्पर्धा के दौर
में उस समूह का अपने प्रतिद्वंद्वियों को पीटते हुए आगे बढ़ना असंभव हो जाता है।
मगर, यहीं वह सवाल सामने आता है कि अपने
कर्मचारियों की जिंदगी से खिलवाड़ इन पूंजी मालिकों को इतना आसान क्यों लगने लगता
है कि आपसी प्रतिद्वंद्विता में ये उस कर्मचारी समूह को सूली पर चढ़ाते चले जाते
हैं जिसके दम पर, जिसकी मेहनत पर उनका पूरा कारोबार टिका हुआ है? यहां सवाल इच्छा का या नीयत का या
सदाशयता का नहीं है। सवाल है समाज में शक्ति के संतुलन का। पूंजी की शक्तियों ने
जिस तरह की मनमानी आज शुरू की है, उससे पहले उन्होंने तैयारी का लंबा दौर चलाया।
उस दौर में कर्मचारियों या मेहनतकश तबकों की ताकत के तमाम स्रोत ढूंढ-ढूंढ कर खत्म
किए जाते रहे। चाहे वह विचारधारा हो या यूनियन हो या समाज के लिए कुछ करने की
भावना हो – इन सबसे कामगार समूहों को अलग करने के सुनियोजित प्रयास किए गए।
कर्मचारियों के मन में ऑफिसर होने का भाव भरा गया। पत्रकारों को यह कहा गया कि ‘तुम कोई क्लर्क नहीं हो’। ऑफिसों में काम करने वालों से कहा गया आप तो
दिमागी काम करते हैं, आप मजदूर थोड़े ही हैं? कहीं किसी को मराठी कहा
गया, जो खुद को परप्रांतीयों से अलग और ऊंचा मानने लग जाए तो किसी को धर्म और जाति
के आधार पर दूसरों से श्रेष्ठ कहते हुए अलग कर दिया गया। जो,इन सब चक्करों में
नहीं पड़े उन्हें करियर की मुगली घुट्टी पिलाते हुए ‘जीवन में आगे बढ़ने’ का मंत्र सिखाया गया। ‘तुम्हें दूसरों से क्या मतलब, अपनी चिंता करो, अपना फायदा देखो।‘ इसे ही जीवन दर्शन के रूप में
प्रचारित किया जाता रहा।
नतीजा यह हुआ कि
मीडियाकर्मी भी बाजार का पहरुआ बन खुद को गौरवान्वित महसूस करते रहे और समाज के
लिए खड़ी होने वाली ताकतों को अप्रासंगिक करार देकर बेमौत मारने की साजिश से पूरी
तरह उदासीन बने रहे।
अब जब पूंजी
मालिकों ने अपने उस काम को अंजाम दे दिया है और उस मोर्चे पर काफी हद तक बेफिक्र
हो चुके हैं तो ब्रैंड वैल्यू की चिंता छोड़ कर और समाज में विरोध की आशंका से
मुक्त होकर पूरी बेशर्मी से ‘हायर एंड फायर’ की नीति को अपना अधिकार
बताते हुए सामूहिक छंटनी के कार्यक्रम चला रहे हैं। सीएनएन-आईबीएन से पहले भी अलग-अलग
समूह ये कार्यक्रम चलाते रहे हैं। सिर्फ दिल्ली की बात करें तो भी पिछले
सितंबरम एनडीटीवी ने 50 से ज्यादा
पत्रकारों को निकाला था। दैनिक भास्कर से हाल ही में 16 पत्रकार निकाले गए थे।
आटलुक ने अपनी तीन पत्रिकाएं बंद कर दीं जिससे 42 पत्रकार एक झटके में बेरोजगार हो
गए...।
यह सूची यहीं
खत्म नहीं होती। मगर, यह संदेश साफ हो जाता है कि एक सीएन-आईबीएन ग्रुप या मुकेश
अंबानी को गालियां देकर इस समस्या का हल नहीं निकल सकता। यह कहना भी व्यावहारिक
नहीं कि अन्य संस्थानों में काम कर रहे सारे पत्रकार अपनी नौकरी की चिंता छोड़
सीएन-आईबीएन के पत्रकारों के साथ धरने पर बैठना शुरू कर दें। मगर, यह तर्क भी
बेमानी है कि ऐसा ही होता रहा है इसलिए ऐसा ही होने दिया जाता रहे।
इस मामले में
दो-तीन अहम मोर्चे हैं। पहला और सबसे बड़ा मोर्चा निकाले गए पत्रकार-गैर पत्रकार
कर्मचारियों के प्रतिरोध का है। चूंकि ऐसे कुछ कर्मचारियों ने हिम्मत दिखाई है और
वे एकजुट होने की कोशिश कर रहे हैं, इसलिए प्रतिरोध के उस स्वर को ताकत देना, उसके
स्वर में अपना स्वर मिलाना पहली और सबसे बड़ी जरूरत है। दूसरा मोर्चा है न्यायिक
विरोध का। कुछ लोग इस मामले को अदालत में ले जाने की भी तैयारी कर रहे हैं। कानून
के जानकारों से राय-मशविरा कर उस दिशा में अगर बात आगे बढ़ती है तो वह भी एक अहम मोर्चा
है जहां लड़ाई तेज की जा सकती है।
तीसरा और सबसे
अहम मोर्चा है समाज से एकजुटता का। पत्रकारों को न केवल अपने पेशे के अन्य लोगों
से पूरी पत्रकार बिरादरी से एकजुटता बनाए रखने की जरूरत है बल्कि समाज के अन्य
वंचित तबकों से भी अपने सरोकार जोड़ने होंगे। पत्रकार इस लड़ाई में अकेले नहीं
हैं। समाज के अलग-अलग हिस्से पहले से ही संघर्ष में उतरे हुए हैं। उन समूहों को
उनके संघर्ष में समर्थन देना और उन्हें अपने संघर्षों से जोड़ना दोनों की सफलता के
लिए जरूरी है। अगर मैं सही समझ पाया हूं तो सीजेआई या कन्सर्न्ड जर्नलिस्ट्स इनीशिएटिव
(जिस संगठन का मंच यह ब्लॉग है) अपनी स्थापना के बाद से यही बात कह रहा है।
अगर हम इन तीनों
मोर्चों पर मजबूती से आगे बढ़ सके तो कोई कारण नहीं है कि पूंजी की मनमानी पर
प्रभावी ढंग से समाज का अंकुश न लग सके। अगर हम नौकरी खोने के बाद दूसरी नौकरी
पाने तक इस संघर्ष को सीमित रखते हैं और चुनौतियों को वैयक्तिक संदर्भों में लेने
की अपनी आदत नहीं बदलते तो हमारी यानी किसी खास शख्स की नौकरी बचे या जाए, उसे
दूसरी नौकरी दर-दर की ठकरें खाने के बाद मिले या तुरंत – हमारे सिरों पर पहाड़
टूटने का यह सिलसिला जारी रहेगा और हम अपना सिर बचाने की तड़प में इधर से उधर
भागते रहेंगे।
(लेखक से इस ईमेल
पर संपर्क कर सकते हैं maalanchm@gmail.com)