प्रणव एन
आजकल जब दिल्ली में पारा नए रेकॉर्ड बना रहा है और गर्मी जीना मुहाल किए हुए है, ऐसे में हमारा बगीचा गुलजार हो गया है। गर्मियां शुरू होने के बाद पीने के पानी की समस्या जैसे हम इंसानों के सामने
आती है उसी तरह पशु-पक्षियों के सामने भी आती है। इस समस्या से सातवीं क्लास में
पढ़ने वाली हमारी बेटी भी वाकिफ है और वह अपने आसपास के जीव जगत को लेकर संवेदनशील
भी है। प्रस्ताव उसी ने रखा। हम पति-पत्नी भी फटाफट तैयार हो गए। एक बड़ा सा (जो
कि वास्तव में बहुत छोटा सा है) मिट्टी का बर्तन खऱीद लाए और उसे गार्डेन में रख
दिया। सुबह, दोपहर, शाम जब भी वह खाली लगने लगता है उसे पानी से भर दिया जाता है।
साथ में दुकान से खरीदा गया थोड़ा बाजरा भी वहीं बरतन के पास छींट देते हैं।
इस छोटे से उपक्रम ने हमारे बगीचे को जैसे जीवंत बना दिया है। सुबह उठने के
बाद से डाइनिंग हॉल में पेपर पढ़ते, चाय पीते हुए जो वक्त हमारा
बीतता है, वह पहले के मुकाबले कहीं ज्यादा दिलचस्प और आनंददायक हो गया है।
भांति-भांति की चिड़ियां यहां आती है, पानी पीती हैं, मन हुआ तो दाना भी चुगती है
और फिर चली जाती हैं। इच्छा हुई तो थोड़ी देर बाद फिर आ जाती हैं। दिल्ली में इतनी
तरह की चिड़ियां हैं यह भी हमें पता नहीं था।
एक और दिलचस्प बात यह कि पानी का बरतन देने के साथ ही हमने दाने भी छींट दिए
थे। पानी पीने चिड़ियां थोड़ी देर बाद से ही आने लगीं, मगर दाना खाने में हिचकिचाईं
और यह हिचकिचाहट लंबी चली। हम देखते कि पानी पीने तो ये चिड़ियां आती हैं, पर पानी
पीकर चली जाती हैं। दानों की तरफ देखतीं भी नहीं। पहले दिन, दूसरे दिन...
मगर, तीसरे दिन हमने देखा कि कुछ चिड़ियों ने दाना चुगना शुरू किया है। उसके
बाद यह सिलसिला तेज होता गया और फिर तो चिड़ियां जिस तत्परता से पानी पीती थीं
उससे ज्यादा तत्परता दाना चुगने में दिखाने लगीं।
हमारे लिए सबक यह था कि इस दुनिया में मासूमियत और सरलता जैसी विशेषताएं
पशु-पक्षियों के बीच से भी गायब होती जा रही हैं। उन्हें भी अपने अनुभवों से एहसास
होने लगा है कि मासूमियत या सरलता ऐसी चीज है जिसकी कीमत जान देकर ही चुकानी पड़ती
है।
पानी और दाना डालने के इस अनुभव ने हमारी दैनिक जिंदगी की क्वालिटी बेशक बढ़ा
दी है। इसमें आनंद के पल और उनकी मात्रा काफी बढ़ गई है। लेकिन यह एहसास भी तीव्र
हो गया है कि दुनिया जैसी चल रही है, वैसे ही चलने दी गई तो यह और दुरूह होती
जाएगी। सादगी, सरलता और मासूमियत जैसी चीजें विलुप्त होती जाएंगी। अधिकाधिक हासिल
करने की होड़ में जीतने को आतुर इंसान इन सबको नष्ट करता जाएगा।
दरअसल हम इंसान जो अन्य जीव-जंतुओं तथा अपने पूरे परिवेश के प्रति इतने
संवेदनहीन हो गए हैं उसकी सबसे बड़ी वजह है हमारा लालच। इस दुनिया को बदशकल करते
जाने इसकी सुंदरता को नष्ट करते जाने में जितनी बड़ी भूमिका इंसानी समाज के लालच
की रही है उतनी किसी और चीज की नहीं।
गौर करने की बात है कि तीन-चार सौ वर्ष ही हुए हैं जब हमने लालच को बाकायदा
सर्वोच्चता प्रदान कर दी। उससे पहले भी लालच की प्रवृत्ति थी। वह अन्य
प्रवृत्तियों को कुचलने का सहज अभियान भी चलाती थी। उसमें उसे कामयाबी भी मिलती थी।
लेकिन, ये कामयाबियां स्थायी नहीं होती थीं। उसे अन्य प्रवृत्तियों जैसे दया,
करुणा, परोपकार और सबसे ज्यादा विवेक से जूझना पड़ता था। समाज ने लालच के सामने
लाचारी भले कई बार महसूस की हो, उसे आदर्श के रूप में कभी स्वीकार नहीं किया।
मगर सामंतवाद से पूंजीवाद में संक्रमण ने यह काम कर दिया। पूंजीवाद ने अधिकतम
संभव लाभ के तर्क को महिमामंडित करते हुए उसे सर्वोच्च स्थान प्रदान कर दिया। यह
सुनिश्चत कर दिया गया कि दुनिया भर में बाकी सारी बातें उसी से तय होने लग जाएं।
इसके बाद औद्योगिक क्रांति ने इस सिद्धांत को व्यवहार में सौ फीसदी लागू कराने
लायक हालात बना दिए। लालच की प्रवृत्ति को संस्थागत स्वरूप देने वाली बड़ी-बड़ी
कंपनियां खड़ी हो गईं जो पूंजी के ढेर की बदौलत दुनिया भर की सरकारों को अपने
इशारे पर नचाने लगीं।
पिछले तीन-चार सौ सालों में इंसान ने क्या-क्या हासिल किया यह तो हम देखते
हैं, मगर उसने क्या-क्या नष्ट किया यह देखें तो रोंगटे खड़े हो जाते हैं। पृथ्वी,
जल और वायु हमने किसी को भी अछूता नहीं छोड़ा। जीवों की कितनी प्रजातियां इंसानी
लालच की प्रचंड अग्नि में जलकर स्वाहा हो गईं, हमें हिसाब लगाने तक की फुरसत नहीं
है। धरती का सीना खोद-खोद कर हमने खनिज
पदार्थ निकाले और इतने निकाले कि धरती का शरीर छलनी-छलनी हो गया। सागर से
भी हमने तेल औऱ तरह-तरह की गैस निकालने में कोई कसर नहीं बाकी रखी। हवा का हमने
क्या हाल कर दिया यह तो सांस लेने वाला हर प्राणी महसूस करता है। अब जब धरती की
संपदा कम पड़ने लगी है तो हम चांद और मंगल का रुख कर रहे हैं ताकि वहां छिपी संपदा
पर भी हमारा कब्जा हो जाए। उन ग्रहों को भी हम नष्ट करें।
मगर, इतना सब करके भी क्या हम अपनी बुनियादी जरूरतें पूरी कर सके हैं? आज भी इंसानी समाज का एक बड़ा हिस्सा अपनी भूख तक नहीं मिटा पा रहा। बच्चे
ठीक-ठाक खाना न मिलने की वजह से बीमारी और अकाल मौत का शिकार हो रहे हैं। हो भी
क्यों न! आखिर लालच
की प्रवृत्ति दोधारी तलवार जो ठहरी। यह अधिक से अधिक जुटाने में जितनी ताकत लगाती
है, उतनी ही ताकत जुटाई हुई चीजों को अपने तक सीमित रखने में भी लगाती है। चूंकि
लालच के ऊपर विवेक का कोई अंकुश नहीं रह गया है, इसलिए सही-गलत जैसे
सवाल उठते ही नहीं। इंसानी समाज का जो हिस्सा सही-गलत को परे रखकर अपने लिए अधिक
से अधिक लाभ हासिल करता है, वही हिस्सा उस लाभ में दूसरे लोगों के जायज हिस्से के
सवाल को भी निगल जाता है। वह उस पूरी संपत्ति पर अपना हक बताते हुए उसे पूरी ताकत
से अपने कब्जे में ही बनाए रखता है। उस हिस्से का इस्तेमाल वह पूरी निर्ममता से
अपने लिए आगे और ज्यादा संपत्ति जुटाने में करता है। इस क्रम में इंसानी समाज का जो
हिस्सा अब भी वंचित है, उसे वह नालायक करार देते हुए पूरी निर्लज्जता से कहता है
कि दुनिया तो है ही समर्थों की। जिनमें जीने की काबिलियत है वे जिएंगे और जिनमें
नहीं है, वे नष्ट हो जाएंगे। यही प्रकृति का नियम है। सो, ‘प्रकृति के इस नियम’ के सहारे वह न केवल अपने
शरीर को सुख देने वाली चीजें इकट्ठा करता जा रहा है बल्कि बाकी इंसानों समेत तमाम
जीव जंतुओं की जिंदगी को नारकीय भी बनाता जा रहा है।
मगर, किसे फुरसत है कि इन जीव जंतुओं के बारे में सोचे। इनकी जिंदगी को थोड़ा
सुकून भरा बनाकर अपने लिए थोड़ा संतोष हासिल करने की सोचे।
आखिर संतोष तो आपको मुनाफा नहीं देता ना, बल्कि मुनाफे को बढ़ाते रहने की
अंतहीन दौड़ से अलग हटने की ही प्रेरणा देता है। सो, संतोष अच्छी चीज कैसे हो सकती
है? यह बेकार ही नहीं, खतरनाक भी है। आप जहां नौकरी
करते हैं, अगर वहां यह कहने लग जाएं कि अधिक से अधिक की चाहत अच्छी बात नहीं होती
और हमें कम में भी संतुष्ट हो जाना चाहिए तो आश्चर्य नहीं कि आपको पागल समझा जाने
लगे। अगर आप अपनी इस मान्यता पर गंभीर हो जाएं और इसे अमल में लाने लगें तो आपकी नौकरी
जाते भी वक्त नहीं लगेगा।
ऐसी ही हो गई है यह दुनिया। जो भी बाते अधिकतम संभव मुनाफे की राह में रोड़ा
बन सकती हैं वे बेकार हैं, गलत हैं, खतरनाक हैं। चाहे वे आदिवासियों की सरलता हो या
पर्यावरण को बचाए रखने का तर्क या अन्य जीव- जंतुओं की चिंता करने का आग्रह। ऐसे में अगर इस ग्रह को मृत ग्रह में बदलने से रोकना
है, अगर दुनिया को जिंदा रहने लायक बनाए रखना है तो रास्ता एक ही है। लालच की इस
प्रवृत्ति के कब्जे से इंसानी समाज को निकालना होगा।
पूंजी के सहारे बाकायदा किलेबंदी करके लालच की इस प्रवृत्ति ने संरचनागत ढांचे
खड़े किए और उनके जरिए मानव समाज की नाक में नकेल डाल रखी है। इसलिए जवाबी ढांचा
खड़ा किए बगैर यह लड़ाई लड़ी और जीती नहीं जा सकती।
पूंजी के तर्क का जवाब श्रम का तर्क ही हो सकता है। यही तर्क जवाबी किलेबंदी
का आधार बन सकता है। इसी के सहारे पूरे समाज को गोलबंद करके व्यूह रचना करनी होगी
और लालच की इस प्रवृत्ति से निर्णायक लड़ाई लड़कर उसे हमेशा के लिए पराजित करना
होगा। विवेकशीलता को निर्णायक भूमिका सौंपनी होगी।
तभी पूरा इंसानी समाज अपनी खोई गरिमा हासिल कर सकेगा, इंसान जैसी जिंदगी बिता
पाएगा और तमाम जीव- जंतुओं से युक्त यह धरती वैसे ही खुशियों से चहकेगी जैसे कि
हमारा बगीचा आजकल चहक रहा है।
('स्वतंत्र जनसमाचार' से साभार)
मैंने भी अपने आगे और पीछे वाली बाल्कनी में पानी के दो छोटे बर्तन रखे है। ये सिलसिला पिछले तीन सालों से चल रहा है। अच्छा लगता है। मन को सुकून मिलता है। ज्यादातर कबूतर ही आते हैं पानी पीने और मूड में होते हैं तो उस छोटे-से पात्र में डुबकी भी लगा लेते हैं।
ReplyDelete|बेहतरीन... बहुत बढ़िया बात कही है आपने। लोगों के ऊपर लालच इस कदर हावी है कि उन्हें कुछ दिखाई नहीं देता। सबसे बड़ी बात यह है कि ये ही लोग हर विभाग में ऊंचे पदों पर बैठे हैं। इन्हें रोकना मुश्किल तो है पर नामुमकिन नहीं।
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