मध्य प्रदेश के बैतूल जिले
में एक स्थानीय संपादक की नौकरी से निकाले जाने के बाद भूख से मौत की खबर विचलित
करने वाली है। (पूरी खबर पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)। इस मौत ने कई सवाल उठाए
हैं। पत्रकार प्रदीप उर्फ मौनू रैकवार की पारिवारिक स्थितियों से जुड़े सवालों को
निजी मानकर फिलहाल छोड़ दिया जाए तो भी उनका बिना किसी नोटिस और मुआवजे के नौकरी
से निकाला जाना, नौकरी छूटते ही भूखों मरने की स्थिति में आ जाना, मौत के बाद
संबंधित अखबार के प्रबंधन द्वारा उन्हें अपना पूर्व कर्मचारी या पत्रकार तक मानने
से इनकार करना, जिला जनसंपर्क विभाग द्वारा भी उन्हें पत्रकार न मानना और अंतिम
संस्कार तक के लिए पत्रकार जगत के संवेदनशील और जिम्मेदार सदस्यों द्वारा चंदा
इकट्ठा करना – ये सब इस बात का ज्वलंत प्रमाण हैं कि देश के विभिन्न छोटे-छोटे
शहरों में पत्रकारों को किन दयनीय हालात में काम करना पड़ता है। यह भी गौर करने की
बात है कि जो अपने पेशे की गंभीरता को समझते हुए स्वाभिमान और गरिमा के साथ अपने
दायित्वों का निर्वाह करना चाहते हैं उन्हें ज्यादा मुश्किलें झेलनी पड़ती हैं।
अगर स्थानीय संपादक के तौर पर प्रदीप प्रबंधन के इशारे पर नाचने को तैयार रहते तो
संभवतः उन्हें ऐसे नौकरी से निकाला नहीं जाता। दूसरी और ज्यादा चिंताजनक बात है
कथित बड़े बैनरों वाले मीडिया हाउसों से जुड़े पत्रकारों का रवैया। बैतूल की
पत्रकार बिरादरी के ज्यादातर सदस्यों की भूमिका सकारात्मक और जवाबदेही भरी रही।
इसके लिए उन्हें सलाम। मगर, कुछेक पत्रकारों ने (जो कथित तौर पर संबंधित अखबार के
मालिकान से एहसान लेते रहे हैं) पत्रकार प्रदीप की मौत को शराब पीने से हुई मौत
बताकर जाने-अनजाने मामले को दूसरा रंग दे दिया। बेशक, इस तरह की रिपोर्टिंग से वह
अखबार प्रबंधन खुश हुआ होगा, जिसने प्रदीप को पत्रकार मानने से भी इनकार कर दिया
था। सचाई समझने और पाठकों तक पहुंचाने के लिए पत्रकारों को न केवल प्रतिनिधि
तथ्यों का चयन करना होता है बल्कि उन्हें सही संदर्भों में भी रखना होता है।
मौजूदा मामले में अगर प्रदीप ने शराब पीनी शुरू भी कर दी थी तो यह उनके जीवन के
अवसाद का परिणाम था। दूसरी बात, घर की माली हालत इस बात का जीता-जागता उदाहरण है
कि वे अय्य़ाश नहीं थे, न ही समझैतापरस्त भ्रष्ट पत्रकारों में उनकी गिनती की जा
सकती है। पत्रकार प्रदीप को श्रद्धांजलि देते हुए पत्रकारिता के उनके जज्बे को हम
सलाम करते हैं। इस मामले पर में जिम्मेदार रिपोर्टिंग के आरोपों के मद्देनजर हम
अपने साथियों से अधिक सजगता की अपील करते हैं और जिन साथियों ने मृत पत्रकार को मरणोपरांत
ही सही, पर समुचित सम्मान और मृतक के परिवार को न्याय दिलाने की मुहिम शुरू की है,
उन्हें बधाई देते हुए यह बताना चाहते हैं कि यह बैतूल के पत्रकारों की ही नहीं, हम
सबकी साझा लड़ाई है। हमें यह बात भी समझनी होगी कि मृतक के परिवार के लिए
थोड़ा-बहुत मुआवजा भर हासिल कर लेना इस लड़ाई का मकसद नहीं हो सकता (हालांकि वह
अनिवार्य पहला कदम जरूर है)। पत्रकारों के सम्मान की यह लड़ाई समाज के तमाम वंचित,
पीड़ित, शोषित समूहों के सम्मान और हक की लडाई से अभिन्न रूप में जुड़ी हुई है। इन
तमाम लडाइयों को एक-दूसरे से जोड़ते हुए सम्मिलित लड़ाई लड़कर और जीत कर ही हम ऐसे
समाज की ओर कदम बढ़ा सकते हैं जिसमें स्वाभिमान और सच्चाई को जीवन मूल्य बनाने
वालों को ऐसी जिल्लत से न गुजरना पड़े।
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