प्रणव प्रियदर्शी
बरखा दत्त, वीर सांघवी और प्रभु चावला - इन तीनों वरिष्ठ पत्रकारों ने अपनी पत्रकारीय गतिविधियों के जरिए जितना योगदान इस क्षेत्र में किया है, उससे ज्यादा योगदान अपनी हाल में सामने आई गैरपत्रकारीय गतिविधियों से कर दिया। भले तात्कालिक तौर पर लग रहा हो कि इनकी विवादित गतिविधियों ने पत्रकारिता को लांछित किया है, सच यह है कि इस विवाद से ये तीनों चाहे जितने भी दागदार या बेदाग निकलें - यह प्रक्रिया निश्चित तौर पर पत्रकारिता को साफ करेगी। सच है कि नीरा राडिया टेप प्रकरण में शामिल पत्रकारों की सूची बहुत लंबी है, फिर भी इन तीन पत्रकारों की चर्चा सबसे ज्यादा हो रही है तो इससे यह भी पता चलता है कि ये तीनों पत्रकार कद और स्टार वैल्यू के मामले में बाकी पत्रकारों से बहुत आगे हैं।
बड़े औद्योगिक घरानों की घोषित लॉबीस्ट नीरा रडिया से बातचीत के जो टेप सामने आए हैं, यह मानना पड़ेगा कि उनसे इन तीनों वरिष्ठ पत्रकारों की विश्वसनीयता को लेकर सवाल खड़े हो गए हैं। प्रभु चावला उस बातचीत में नीरा के सामने इस बात के लिए परेशान दिखते हैं कि मुकेश अंबानी उनको भाव नहीं दे रहे। वे इस बात को लेकर आश्वस्त हैं कि अदालतों के फैसले फिक्स होते हैं। वह नीरा से यह भी कहते हैं कि मुकेश को वह (प्रभु) बता सकते हैं कि अदालत से मनचाहे फैसले के लिए उन्हें किससे बात करनी चाहिए, पर मुकेश उनसे बात तो करें।
वीर सांघवी और बरखा दत्त की नीरा से बातचीत अपेक्षाकृत ज्यादा पत्रकारीय है। वीर को नीरा यह निर्देश देती मालूम होती हैं कि उन्हें अपने कॉलम में क्या लिखना है और कैसे लिखना है। वीर भी पूरी निष्ठा से यह निर्देश लेते नजर आते हैं। अगर बात इतनी ही है, तब भी खुद वीर भले कहें कि यह एक सूत्र को विश्वास में लेने का उनका तरीका था, पाठकों के लिए यह जानकारी जरूर चोट पहुंचाने वाली है कि जिस कॉलम को वे पूरी श्रद्धा से पढ़ते रहे हैं, उसका लेखक एक औद्योगिक समूह की लॉबीस्ट के सामने इस तरह साष्टांग दंडवत मुद्रा में होता है।
पर, बात इतनी ही नहीं है। आरोप यह भी है कि नीरा के लिए वीर ने अपने संपर्कों का इस्तेमाल किया। पत्रकार के रूप में उनका विभिन्न नेताओं पर जो प्रभाव था, उनकी जो पहुंच थी उसका पूरा-पूरा फायदा उन्होंने नीरा राडिया को लेने दिया।
यही आरोप बरखा दत्त पर भी है। बरखा कह रही हैं कि वह अपने सूत्र से खबर निकालने की कोशिश कर रही थीं। मगर, कई सवाल उनके इस दावे को सच मानने में रोड़ा बन कर खड़े हैं। क्या एक पत्रकार की राजनीतिक खबरों का सूत्र किसी औद्योगिक घराने का लॉबीस्ट हो सकता है? यह भी पूछा जा रहा है कि जब नीरा से बातचीत में साफ हो गया कि टाटा की घोषित प्रतिनिधि नीरा सरकार गठन की प्रक्रिया को प्रभावित करने की कोशिश कर रही है, तो बरखा को क्या यह बात अपने आप में कोई खबर नहीं महसूस हुई? तीसरी बात इन टेपों में बरखा दत्त नीरा से जानकारी लेती नहीं बल्कि नीरा को जानकारी देती दिखती हैं। वह नीरा के संदेशवाहक की भूमिका में नजर आती हैं।
सवाल यह है कि क्या किसी पत्रकार को यह हक है कि जनहित में समाचार इकट्ठा करने और प्रसारित करने की प्रक्रिया के दौरान उसका विभिन्न नेताओं से जो संपर्क होता है उसका फायदा वह किसी औद्योगिक घराने की लाबीस्ट को लेने दे। और यहां तो आरोप यह नहीं है कि वीर या बरखा का फायदा नीरा ले रही थीं, आरोप यह है कि नीरा का फायदा ये दोनों ले रहे थे। उसे इंप्रेस करने, उसके निर्देशों का पालन करने में ये दोनों लगे थे।
जिसे लाख टके का सवाल बताया जा रहा है वह यह है कि क्या इस मामले में कैश की कोई भूमिका थी? कसौटी इसी सवाल को बनाया जा रहा है, यह कहते हुए कि अगर यह सब पैसों के लिए किया जा रहा था तब तो कोई सफाई नहीं चलेगी। लेकिन, अगर पैसों का लेन-देन नहीं हुआ है तब इतनी हाय-तौबा मचाने का कोई मतलब नहीं।
मगर, पत्रकारिता की विश्वसनीयता के संदर्भ में देखें तो यह कसौटी कारगर नहीं है। जरूरी नहीं कि एहसानों का आदान प्रदान सिर्फ कैश में हो। हम जानते हैं कि इसके और भी कई तरीके हो सकते हैं, होते हैं।
जिस सवाल का जवाब इन वरिष्ठ पत्रकारों को देना है वह यह नहीं है कि उन्होंने नीरा के निर्देशों के पालन के बदले में कैश लिया या नहीं। सवाल यह है कि क्या ये कथित निर्देश और उनका पालन उनके पत्रकारीय दायित्वों के निर्वाह के लिए जरूरी थे? क्या कोई पत्रकार नीरा राडिया जैसे तत्वों से निर्देश लिए और इन निर्देशों का पालन किए बगैर प्रभावी रिपोर्टिंग नहीं कर सकता?
इन सवालों का जवाब उक्त पत्रकारों को ही नहीं, पत्रकारिता जगत को भी देना है ताकि आम पाठक उन जवाबों की रोशनी में पत्रकारिता और पत्रकार के बारे में अपनी नई समझ बना सके।
Sunday, 5 December 2010
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प्रणव जी आपने बिल्कुल सही सवाल उठाए हैं। सवाल न बरखा का है न वीर का है और ना ही प्रभु चावला का है। सवाल है कि जिस मीडिया पर देश की जनता आंख मूंदकर विश्वास करती है, क्या इस टेप कांड के बाद मीडिया पर वह वैसे से ही विश्वास करती रहेगी। मुझे लगता है कि इस घटना के बाद पत्रकारिता की विश्वसनीयता को धक्का लगा है। हालांकि इस घटना ने एक काम अच्छा जरूर किया है कि पत्रकारिता के संड़ांध को सबके सामने लाकर रख दिया है।
ReplyDeleteअगर नीरा राडिया जैसे लोग पत्रकारों को निर्देश दे रहे हैं, तो इसके पीछे पत्रकारों की कमजोरी झलकती है। पत्रकारों के निहित स्वार्थ ने उन्हें कमजोर बनाया है। मुझे लगता है कि अगर पत्रकार नीरा जैसे लोगों से बिना निर्देश लिए प्रभावी रिपोर्टिंग करना चाहे तो वह आसानी से कर सकता है। हालांकि मेरा मानना है कि सब पत्रकार एक जैसे नहीं है और आज भी बहुत सारे जर्नलिस्ट दम ठोंककर सही तरीके से पत्रकारिता कर रहे हैं।
इसके पहले भी तहलका कांड में मीडिया की नैतिकता पर सवाल खड़े हुए थे, जब तहलका में शामिल पत्रकारों ने रक्षा सौदों का भंडाफोड़ करने के लिए शराब और लड़की मुहैया कराया था। उस समय भी पत्रकारिता की नैतिकता पर खूब बवाल मचा था पर इससे कुछ ठोस हासिल नहीं हुआ था। लेकिन इस बार हमें इस पर गहन विचार करने की जरूरत है और इस दिशा में किसी ठोस नतीजे पर पहुंचना होगा। रिपोर्टिंग के लिए सोर्स डवलप करने के मामले में लक्ष्मण रेखा खींचने की जरूरत है, जिसे पत्रकार किसी भी परिस्थिति में लांघ न सकें।
dhanyavaad prem. tahalka wale mamle me mukhya sawal tarike pr utha tha, iss bar mukhya sawaal hai neeyat ka. us maamle me patrakaar bhrasht tatvo ko benakab karne ki mumhim pr the, is bar case patrakaron ki milibhagat ka hai. ab isme kaun kitna doshi hai aur kaun nahi ye to jaanch ka vishay hai.. lekin isme shak nahi ki is bar patrkarita pr sankat bhee bada hai aur chunauti bhee kathin hai.
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