अभिषेक महरोत्रा
(अभिषेक नवभारत टाइम्स डॉट कॉम से जुड़े युवा पत्रकार हैं। इस पोस्ट में उन्होंने नीरा राडिया प्रकरण के सहारे पत्रकारों की मजबूरियों से जुड़ा पहलू सामने रखा है और आखिरी पैमाना पत्रकारों के अंतःकरण को माना है। पर सवाल यह है कि क्या पत्रकार यह कह कर बच सकते हैं कि जो कुछ मैंने किया वह मेरी नजर में ठीक है? फिर बतौर पत्रकार पाठकों के आगे उनकी जिम्मेदारी का क्या होगा? बहरहाल, बहस को आगे बढ़ाते हुए पेश है अभिषेक की यह पोस्ट। )
2जी स्पेक्ट्रम घोटाले ने जहां एक ओर ए.राजा और नीरा राडिया को घसीटा है, तो वहीं दूसरी ओर मीडिया की कुछ नामचीन हस्तियां भी इसके लपेटे में दिख रही हैं। पहले यह स्पष्ट कर दूं मैं यहां किसी मीडियापर्सन को डिफेंड नहीं कर रहा हूं। मेरा भी स्पष्ट मानना है कि अगर कोई पत्रकार 2जी मामले में किसी तरह लिप्त है तो उसे सज़ा मिलनी ही चाहिए। मगर किसी पत्रकार द्वारा किसी और व्यक्ति से बातचीत में उसकी हां में हां मिलाने पर उसे सांठगांठ का दोषी ठहराना मुझे ज्यादती लगता है। खासकर इसलिए कि मैं खुद भी पत्रकार हूं और मैंने खुद कई बार ऐसी स्थितियां फेस की हैं - जब मैं खुद किसी राजनीतिज्ञ से बात करता हूं तो बातचीत जारी रखने के लिए कई बार हमें उनकी हर सही और कभी-कभी (मेरी नज़र में) गलत बात पर भी हामी भरनी पड़ती है।
खबर निकालने के लिए जरूरी है आपकी संबंधित पक्षों से गपशप हो और गपशप में जो कुछ बात हो रही है, जरूरी नहीं है कि आप उससे सहमत हो, पर गपशप बनाए रखने के लिए आप ऐसी बातों पर भी हां-हां-हुं-हुं करते रहते हैं क्योंकि उनसे बहस करके आप बात को तोड़ना या किसी और दिशा में मोड़ना नहीं चाहते। उदाहरण के लिए अगर मैं गिलानी से बात करूं और वह कहें कि भारत सरकार कश्मीरियों से अन्याय कर रही है और मैं उनसे बात निकलवाने के लिए हां-हां-हुं-हुं करूं तो इसका यह मतलब नहीं हुआ कि मैं उनकी बात से सहमत हूं। इसी तरह कई कई बार ऐसा भी होता है कि जो सोर्स आपको लगातार खबर दे रहा है, वह आपसे उस खबर में कुछ शब्द अपने लिए भी डलवाना चाहता है। यहां पर पत्रकार विवेकानुसार काम करता है। अगर वे चंद शब्द ऐसे हैं जिनसे किसी और का डायरेक्ट या इनडायरेक्ट फायदा या नुकसान नहीं होता, तो उसे जाने भी देता है। ऐसा करना इसलिए भी जरूरी होता है ताकि भविष्य में वह सोर्स आपके फिर काम आता रहे। फिर दोहरा रहा हूं कि मैं यह नहीं कह रहा कि मीडिया सौ प्रतिशत पाक-साफ है, लेकिन किसी भी जजमेंट पर पहुंचने से पहले सिक्के के दोनों पहलुओं की जांच जरूरी है। लेकिन साथ ही मेरा मानना है कि हर 'वीर' पत्रकार को (वीर इसलिए लिख रहा हूं कि पत्रकारों के लिए काजल की कोठरी से बेदाग निकलना किसी वीरता भरे काम से कम नहीं है) बिना किसी डर से अपना काम जारी रखना चाहिए। हमेशा याद रखिए कि यदि आपकी आत्मा आपको सही होने का सर्टिफिकेट देती है तो फिर दुनिया के सर्टिफिकेट की चिंता मत कीजिए क्योंकि कुछ तो लोग कहेंगे, लोगों का काम है कहना...।
हां, लेकिन राडिया कांड हमें यह सीख जरूर देता है कि अपने सोर्स के बात करते हुए हमें अधिक से अधिक सावधानी बरतनी चाहिए। बाकी द्वारिकाप्रसाद माहेश्वरी जी की लिखी यह कविता फॉलो करते रहें-वीर तुम बढ़े चलो
धीर तुम बढ़े चलो
सामने पहाड़ हो
सिंह की दहाड़ हो
तुम निडर, हटो नहीं
तुम निडर, डटो वहीं
वीर तुम बढ़े चलो
धीर तुम बढ़े चलो
प्रात हो कि रात हो
संग हो न साथ हो
सूर्य से बढ़े चलो
चंद्र से बढ़े चलो
वीर तुम बढ़े चलो
धीर तुम बढ़े चलो
(नवभारत टाइम्स के ब्लॉग 'रू-ब-रू जिंदगी' से साभार)
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आपने 'पत्रकार धर्म' अच्छे से निभाया है अभिषेक जी। सीनियर पत्रकारों को संकट में बचाना ही शायद बड़ा पुण्य है, 'फल' भी मिलने की उम्मीद कर सकते हैं। मगर, यही तर्क जरा अशोक चव्हाण और ए राजा पर भी लागू करें और उन्हें सलाह दें, वीर तुम बढ़े चलो... तब आपकी पत्रकारिता लांछित होगी क्योंकि भ्रष्ट नेता को बचाते आप नहीं दिखना चाहते। फिर भ्रष्ट पत्रकारों को क्यों बचाते हैं? सिर्फ इसलिए कि वह आपकी बिरादरी के हैं? भाई भ्रष्टों की बिरादरी से खुद को बाहर करें या फिर काजल की कोठरी से बेदाग निकलने का गुमान छोड़ दें।
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