Sunday 12 December 2010

एक तो चोरी, फिर सीनाजोरी


विनोद गुप्ता
(यह प्रतिक्रिया हमें ईमेल से मिली। विनोद गुप्ता जी ने पूरा परिचय देना ठीक नहीं समझा। इतना जरूर बताया है कि वह भी पत्रकार हैं और इस पेशे की अहमियत उन्हें पता है। लिहाजा वह पत्रकारों के सुधरने की जरूरत पूरी शिद्दत से महसूस करते हैं।)

राडिया कांड में कुछ सिलेब्रेटी टाइप के पत्रकारों का नाम आना पत्रकारिता के लिए शर्मनाक तो है ही, पर इससे भी शर्मनाक है इस मामले में उन पत्रकारों की सीनाजोरी। टेप में साफ-साफ नाम आने के बाद जिस तरह की बेशर्मी ये तथाकथित बड़े पत्रकार दिखा रहे हैं, उससे नेता भी शर्मा जाएं। 2जी मामले में काफी हील - हुज्जत के बाद टेलिकॉम मिनिस्टर राजा को इस्तीफा देना पड़ा, पर इन पत्रकारों को देखिए ये उसी तरह से सीना तानकर चल रहे हैं और अपना शो पेश कर रहे हैं। हालांकि पत्रकारिता के 'वीर' ने कुछ दिनों का ब्रेक जरूर लिया है, पर वह नाकाफी है।

आखिर ऐसा क्यों है कि हर वक्त नैतिकता के नाम पर नेताओं की बखिया उधेड़ेने वाले पत्रकार अपनी बारी आने पर सीनाजोरी करने लगे? बरखा दत्त ने एनडीटीवी पर पत्रकरों का पैनल बुलाकर अपनी सफाई दी, पर वह इस सफाई में अपने को पाक-साफ साबित नहीं कर पाईं। बड़े-बड़े नेताओं की बोलती बंद करनेवालीं बरखा की जुबान कई सवालों के जवाब में लड़ख़ड़ाती दिखी। कुछ इसी तरह का स्टैंड प्रभु चावला का भी ने भी लिया। मुझे लगता है कि इन पत्रकारों ने कुछ नया नहीं किया है। और इसमें कुछ आश्चर्य करनेवाला भी नहीं लगा क्योंकि मुझे पहले से ही लगता था कि इस तरह के लोग 'दलाल' के सिवा कुछ नहीं हैं।

मुझे पत्रकारिता के इस दलालीकरण का आभास पहले से था, पर अब यह सबके सामने आ गया है। मुझे लगता है कि सूत्र से खबर निकलवाने के लिए इस तरह की बातचीत करना और उसके आदेश पर कॉलम लिखना कहीं से भी पत्रकारिता के नियमों के अनुकुल नहीं है। तब तो राजा को दोषी भी नहीं ठहराया जाना चाहिए क्योंकि उन्होंने जो भी किया वह अपनी पार्टी की भलाई के लिए किया। दरअसल, पत्रकारिता में कुछ लोगों को छोड़ दें, तो यह प्रफेशन पूरी तरह से दलालों, अपराधियों और भ्रष्ट लोगों की गिरफ्त में है।

निचले स्तर पर काफी भ्रष्टाचार है। वहां पर तो खबरें बिना पैसे लिए लिखी ही नहीं जातीं। छोटी - छोटी जगहों पर तो पत्रकार (स्ट्रींगर) पुलिस के साथ सांठगांठ करके लोगों से पैसा ऐंठते हैं और उनका मामला सेट कराते हैं। कुछ तो अपनी कलम का डर दिखाकर व्यापारियों से चंदा लेते हैं। इसी तरह ऊपरी स्तर पर तथाकथित बड़े पत्रकार दलाली करते हैं और खूब पैसा बना रहे हैं। पैसे लेकर न्यूज लिखना तो अब छोटी - छोटी जगहों की बात नहीं रही, अब तो यह नैशनल मुद्दा बन गया है, जिसे अब पेड न्यूज कह रहे हैं। चुनावों के समय तो बजाप्ता स्थानीय एडिटर और ब्यूरो चीफ को टारगेट दिया जाता है कि इस बार फलां पार्टी से और फलां कैंडिडेट से इतनी रकम वसूलनी है।

आपको मैं बता दूं गांवों में कुछ अपराधी किस्म के लोग पुलिस से बचने और अपना प्रभाव दिखाने के लिए पत्रकार बन जाते हैं। जिस प्रफेशन में इतना भ्रष्टाचार हो और ऐसे लोग हों, उससे तो यही उम्मीद की जा सकती थी। बिल्कुल वैसा ही इन पत्रकारों ने किया भी। हालांकि मेरा यह मानना है कि सारे पत्रकार एक जैसे नहीं होते, आज भी कुछ लोग ईमानदारी के साथ पत्रकारिता कर रहे हैं। लेकिन मेरा मानना है कि पत्रकारों का इस तरह का आचरण कहीं से भी ठीक नहीं है। पत्रकारों को भी सुधरने की जरूरत है।

Wednesday 8 December 2010

'हां-हूं' का मतलब 'हां में हां' नहीं होता

अभिषेक महरोत्रा
(अभिषेक नवभारत टाइम्स डॉट कॉम से जुड़े युवा पत्रकार हैं। इस पोस्ट में उन्होंने नीरा राडिया प्रकरण के सहारे पत्रकारों की मजबूरियों से जुड़ा पहलू सामने रखा है और आखिरी पैमाना पत्रकारों के अंतःकरण को माना है। पर सवाल यह है कि क्या पत्रकार यह कह कर बच सकते हैं कि जो कुछ मैंने किया वह मेरी नजर में ठीक है? फिर बतौर पत्रकार पाठकों के आगे उनकी जिम्मेदारी का क्या होगा? बहरहाल, बहस को आगे बढ़ाते हुए पेश है अभिषेक की यह पोस्ट। )

2जी स्पेक्ट्रम घोटाले ने जहां एक ओर ए.राजा और नीरा राडिया को घसीटा है, तो वहीं दूसरी ओर मीडिया की कुछ नामचीन हस्तियां भी इसके लपेटे में दिख रही हैं। पहले यह स्पष्ट कर दूं मैं यहां किसी मीडियापर्सन को डिफेंड नहीं कर रहा हूं। मेरा भी स्पष्ट मानना है कि अगर कोई पत्रकार 2जी मामले में किसी तरह लिप्त है तो उसे सज़ा मिलनी ही चाहिए। मगर किसी पत्रकार द्वारा किसी और व्यक्ति से बातचीत में उसकी हां में हां मिलाने पर उसे सांठगांठ का दोषी ठहराना मुझे ज्यादती लगता है। खासकर इसलिए कि मैं खुद भी पत्रकार हूं और मैंने खुद कई बार ऐसी स्थितियां फेस की हैं - जब मैं खुद किसी राजनीतिज्ञ से बात करता हूं तो बातचीत जारी रखने के लिए कई बार हमें उनकी हर सही और कभी-कभी (मेरी नज़र में) गलत बात पर भी हामी भरनी पड़ती है।
खबर निकालने के लिए जरूरी है आपकी संबंधित पक्षों से गपशप हो और गपशप में जो कुछ बात हो रही है, जरूरी नहीं है कि आप उससे सहमत हो, पर गपशप बनाए रखने के लिए आप ऐसी बातों पर भी हां-हां-हुं-हुं करते रहते हैं क्योंकि उनसे बहस करके आप बात को तोड़ना या किसी और दिशा में मोड़ना नहीं चाहते। उदाहरण के लिए अगर मैं गिलानी से बात करूं और वह कहें कि भारत सरकार कश्मीरियों से अन्याय कर रही है और मैं उनसे बात निकलवाने के लिए हां-हां-हुं-हुं करूं तो इसका यह मतलब नहीं हुआ कि मैं उनकी बात से सहमत हूं। इसी तरह कई कई बार ऐसा भी होता है कि जो सोर्स आपको लगातार खबर दे रहा है, वह आपसे उस खबर में कुछ शब्द अपने लिए भी डलवाना चाहता है। यहां पर पत्रकार विवेकानुसार काम करता है। अगर वे चंद शब्द ऐसे हैं जिनसे किसी और का डायरेक्ट या इनडायरेक्ट फायदा या नुकसान नहीं होता, तो उसे जाने भी देता है। ऐसा करना इसलिए भी जरूरी होता है ताकि भविष्य में वह सोर्स आपके फिर काम आता रहे। फिर दोहरा रहा हूं कि मैं यह नहीं कह रहा कि मीडिया सौ प्रतिशत पाक-साफ है, लेकिन किसी भी जजमेंट पर पहुंचने से पहले सिक्के के दोनों पहलुओं की जांच जरूरी है। लेकिन साथ ही मेरा मानना है कि हर 'वीर' पत्रकार को (वीर इसलिए लिख रहा हूं कि पत्रकारों के लिए काजल की कोठरी से बेदाग निकलना किसी वीरता भरे काम से कम नहीं है) बिना किसी डर से अपना काम जारी रखना चाहिए। हमेशा याद रखिए कि यदि आपकी आत्मा आपको सही होने का सर्टिफिकेट देती है तो फिर दुनिया के सर्टिफिकेट की चिंता मत कीजिए क्योंकि कुछ तो लोग कहेंगे, लोगों का काम है कहना...।

हां, लेकिन राडिया कांड हमें यह सीख जरूर देता है कि अपने सोर्स के बात करते हुए हमें अधिक से अधिक सावधानी बरतनी चाहिए। बाकी द्वारिकाप्रसाद माहेश्वरी जी की लिखी यह कविता फॉलो करते रहें-वीर तुम बढ़े चलो
धीर तुम बढ़े चलो
सामने पहाड़ हो
सिंह की दहाड़ हो
तुम निडर, हटो नहीं
तुम निडर, डटो वहीं
वीर तुम बढ़े चलो
धीर तुम बढ़े चलो
प्रात हो कि रात हो
संग हो न साथ हो
सूर्य से बढ़े चलो
चंद्र से बढ़े चलो
वीर तुम बढ़े चलो
धीर तुम बढ़े चलो
(नवभारत टाइम्स के ब्लॉग 'रू-ब-रू जिंदगी' से साभार)

Sunday 5 December 2010

कटघरे में वीर और बरखा ही नहीं, हम सब हैं

प्रणव प्रियदर्शी

बरखा दत्त, वीर सांघवी और प्रभु चावला - इन तीनों वरिष्ठ पत्रकारों ने अपनी पत्रकारीय गतिविधियों के जरिए जितना योगदान इस क्षेत्र में किया है, उससे ज्यादा योगदान अपनी हाल में सामने आई गैरपत्रकारीय गतिविधियों से कर दिया। भले तात्कालिक तौर पर लग रहा हो कि इनकी विवादित गतिविधियों ने पत्रकारिता को लांछित किया है, सच यह है कि इस विवाद से ये तीनों चाहे जितने भी दागदार या बेदाग निकलें - यह प्रक्रिया निश्चित तौर पर पत्रकारिता को साफ करेगी। सच है कि नीरा राडिया टेप प्रकरण में शामिल पत्रकारों की सूची बहुत लंबी है, फिर भी इन तीन पत्रकारों की चर्चा सबसे ज्यादा हो रही है तो इससे यह भी पता चलता है कि ये तीनों पत्रकार कद और स्टार वैल्यू के मामले में बाकी पत्रकारों से बहुत आगे हैं।

बड़े औद्योगिक घरानों की घोषित लॉबीस्ट नीरा रडिया से बातचीत के जो टेप सामने आए हैं, यह मानना पड़ेगा कि उनसे इन तीनों वरिष्ठ पत्रकारों की विश्वसनीयता को लेकर सवाल खड़े हो गए हैं। प्रभु चावला उस बातचीत में नीरा के सामने इस बात के लिए परेशान दिखते हैं कि मुकेश अंबानी उनको भाव नहीं दे रहे। वे इस बात को लेकर आश्वस्त हैं कि अदालतों के फैसले फिक्स होते हैं। वह नीरा से यह भी कहते हैं कि मुकेश को वह (प्रभु) बता सकते हैं कि अदालत से मनचाहे फैसले के लिए उन्हें किससे बात करनी चाहिए, पर मुकेश उनसे बात तो करें।

वीर सांघवी और बरखा दत्त की नीरा से बातचीत अपेक्षाकृत ज्यादा पत्रकारीय है। वीर को नीरा यह निर्देश देती मालूम होती हैं कि उन्हें अपने कॉलम में क्या लिखना है और कैसे लिखना है। वीर भी पूरी निष्ठा से यह निर्देश लेते नजर आते हैं। अगर बात इतनी ही है, तब भी खुद वीर भले कहें कि यह एक सूत्र को विश्वास में लेने का उनका तरीका था, पाठकों के लिए यह जानकारी जरूर चोट पहुंचाने वाली है कि जिस कॉलम को वे पूरी श्रद्धा से पढ़ते रहे हैं, उसका लेखक एक औद्योगिक समूह की लॉबीस्ट के सामने इस तरह साष्टांग दंडवत मुद्रा में होता है।

पर, बात इतनी ही नहीं है। आरोप यह भी है कि नीरा के लिए वीर ने अपने संपर्कों का इस्तेमाल किया। पत्रकार के रूप में उनका विभिन्न नेताओं पर जो प्रभाव था, उनकी जो पहुंच थी उसका पूरा-पूरा फायदा उन्होंने नीरा राडिया को लेने दिया।
यही आरोप बरखा दत्त पर भी है। बरखा कह रही हैं कि वह अपने सूत्र से खबर निकालने की कोशिश कर रही थीं। मगर, कई सवाल उनके इस दावे को सच मानने में रोड़ा बन कर खड़े हैं। क्या एक पत्रकार की राजनीतिक खबरों का सूत्र किसी औद्योगिक घराने का लॉबीस्ट हो सकता है? यह भी पूछा जा रहा है कि जब नीरा से बातचीत में साफ हो गया कि टाटा की घोषित प्रतिनिधि नीरा सरकार गठन की प्रक्रिया को प्रभावित करने की कोशिश कर रही है, तो बरखा को क्या यह बात अपने आप में कोई खबर नहीं महसूस हुई? तीसरी बात इन टेपों में बरखा दत्त नीरा से जानकारी लेती नहीं बल्कि नीरा को जानकारी देती दिखती हैं। वह नीरा के संदेशवाहक की भूमिका में नजर आती हैं।

सवाल यह है कि क्या किसी पत्रकार को यह हक है कि जनहित में समाचार इकट्ठा करने और प्रसारित करने की प्रक्रिया के दौरान उसका विभिन्न नेताओं से जो संपर्क होता है उसका फायदा वह किसी औद्योगिक घराने की लाबीस्ट को लेने दे। और यहां तो आरोप यह नहीं है कि वीर या बरखा का फायदा नीरा ले रही थीं, आरोप यह है कि नीरा का फायदा ये दोनों ले रहे थे। उसे इंप्रेस करने, उसके निर्देशों का पालन करने में ये दोनों लगे थे।

जिसे लाख टके का सवाल बताया जा रहा है वह यह है कि क्या इस मामले में कैश की कोई भूमिका थी? कसौटी इसी सवाल को बनाया जा रहा है, यह कहते हुए कि अगर यह सब पैसों के लिए किया जा रहा था तब तो कोई सफाई नहीं चलेगी। लेकिन, अगर पैसों का लेन-देन नहीं हुआ है तब इतनी हाय-तौबा मचाने का कोई मतलब नहीं।
मगर, पत्रकारिता की विश्वसनीयता के संदर्भ में देखें तो यह कसौटी कारगर नहीं है। जरूरी नहीं कि एहसानों का आदान प्रदान सिर्फ कैश में हो। हम जानते हैं कि इसके और भी कई तरीके हो सकते हैं, होते हैं।

जिस सवाल का जवाब इन वरिष्ठ पत्रकारों को देना है वह यह नहीं है कि उन्होंने नीरा के निर्देशों के पालन के बदले में कैश लिया या नहीं। सवाल यह है कि क्या ये कथित निर्देश और उनका पालन उनके पत्रकारीय दायित्वों के निर्वाह के लिए जरूरी थे? क्या कोई पत्रकार नीरा राडिया जैसे तत्वों से निर्देश लिए और इन निर्देशों का पालन किए बगैर प्रभावी रिपोर्टिंग नहीं कर सकता?

इन सवालों का जवाब उक्त पत्रकारों को ही नहीं, पत्रकारिता जगत को भी देना है ताकि आम पाठक उन जवाबों की रोशनी में पत्रकारिता और पत्रकार के बारे में अपनी नई समझ बना सके।