Friday 16 December 2011

सिविल सोसाइटी के घेरे को तोड़े तो बहुत कुछ कर सकता है अन्ना का यह आंदोलन

टीम अन्ना ने देश में बदलाव का माहौल तो बना दिया है, लेकिन यह बदलाव क्या होगा, कैसा होगा और कितना होगा - जैसे सवाल अभी कायम हैं और इनके जवाब इस बात पर निर्भर करते हैं कि टीम अन्ना सिविल सोसाइटी के मौजूदा घेरे को तोडक़र आम जनता के साथ एकाकार होने में कितना कामयाब होती है। यह बात गुरुवार को नई दिल्ली के गांधी पीस फाउंडेशन सभागार में चर्चा सत्र के दौरान दिए गए वक्तव्यों से उभरी। चर्चा सत्र का आयोजन कन्संर्ड जर्नलिस्ट इनिशिएटिव (सीजेआई) ने किया था।

प्रमुख वक्ता थे प्रसिद्ध पत्रकार और मानवाधिकार कार्यकर्ता कुलदीप नैयर, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रफेसर सुबोध मालाकार, ऑल इंडिया वर्कर्स काउंसिल के राष्टीय संयोजक ओमप्रकाश, मशहूर रंगकर्मी और टीम अन्ना के अहम सदस्य अरविंद गौड़ तथा वरिष्ठ पत्रकार जितेंद कुमार।

अनिल सिन्हा

सबसे पहले सीजेआई के संयोजक अनिल सिन्हा ने विषय प्रवर्तन करते हुए कहा, अन्ना के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन को दाद देनी चाहिए कि उसने देश के मध्यम वर्ग और खाते पीते लोगों को सड़कों पर आने को मजबूर किया। यह वह वर्ग है जिसे भ्रष्टाचार से कोई दिक्कत नहीं है। मगर, अहम सवाल आज यह है कि अन्ना का आंदोलन बड़े बदलावों का वाहक बनेगा या नहीं। उन्होंने कहा, खुद को एक खास कानून की मांग तक सीमित रखते हुए यह आंदोलन बड़े बदलावों की ओर नहीं जा सकता। सिर्फ भष्टाचार नहीं बल्कि नई जीवनशैली, बेरोजगारी, गरीबी, नौकरियों में असुरक्षा बोध - ये बड़े कारण हैं जो देश में बदलाव की जरूरत को रेखांकित करते हैं। उन्होंने कहा कि अन्ना के आंदोलन को इतना समर्थन मिलने की एक बड़ी वजह है उसका अहिंसात्मक रूप। लेकिन, अन्ना खुद को गांधीवादी कहते हुए शिवाजी से पेरित बताना भी नहीं भूलते। इन दोनों महापुरुषों का व्यक्तित्व का एक-दूसरे से बिल्कुल अलग है और एक साथ दोनों का नाम लेने से आंदोलन में भम की गुंजाइश बनती है।

जितेंद्र कुमार

वरिष्ठ पत्रकार जितेंद्र कुमार ने कहा कि भ्रष्टाचार की बात होती है तो सिर्फ हम आर्थिक भ्रष्टाचार की बात करते हैं, लेकिन समाज में दूसरे तरह के करप्शन भी हैं। आप सरकारी शिक्षा और प्राइवेट शिक्षा में अंतर को देख सकते हैं। आप देख सकते हैं कि कैसे सरकारी शिक्षा संस्थानों को नष्ट किया जा रहा है। स्वास्थ्य संस्थाओं को जानबूझकर चौपट किया जा रहा है ताकि लोगों को इसके लिए प्राइवेट हॉस्पिटलों में जाना पड़े। आखिर पूरे देश में एक समान शिक्षा की बात क्यों नहीं हो रही है। एक समान स्वास्थ्य सेवाओं की बात क्यों नहीं की जा रही है।

सुबोध मालाकार

जेएनयू के प्रफेसर सुबोध मालाकार ने ने कहा कि भ्रष्टाचार की कोई नीति नहीं होती बल्कि नीतियों में भ्रष्टाचार होता है। उनका कहना था कि नीतियों पर विश्लेषण के बाद ही भ्रष्टाचार को मिटाया जा सकता है। उन्होंने अन्ना के आंदोलन के बारे में कहा कि यह लंबे संघर्ष की कहानी नहीं है। हालांकि उन्होंने कहा कि अन्ना ने भ्रष्टाचार को मुद्दा जरूर बनाया है पर कारणों पर विचार करने की जरूरत है।

भ्रष्टाचार के कारणों पर प्रकाश डालते हुए उन्होंने कहा कि 60 के दशक तक तो देश का सिस्टम ठीक चला लेकिन 70 का दशक आते-आते देश में भ्रष्टाचार जड़ पकड़ने लगा। उन्होंने कहा कि नव उदारवाद और सामाजिक संरचना, इन दो चीजों ने देश में भ्रष्टाचार को बढ़ावा दिया है।

उन्होंने कहा कि नव उदारवाद के तहत फ्री मार्केट और डीकंट्रोलाइजेशन ऑफ गवर्नमेंट की नीतियों पर जोर रहता है। उन्होंने बताया कि कैसे वर्ल्ड बैंक का 18 फीसदी धन दुनिया भर के सांसदों पर खर्च किया जाता है ताकि वे साम्राज्यवादी ताकतों के फेवर में नीतियां बना सके। उनका कहना था कि पूंजीवाद और भ्रष्टाचार में गठजोड़ है और इसको तोड़े बगैर भ्रष्टाचार को मिटाया नहीं जा सकता।

ओमप्रकाश

ऑल इंडिया वर्कर्स काउंसिल के ओम प्रकाश ने कहा अन्ना के आंदोलन को इस बात का श्रेय देना पडग़ा कि इसने हमारे लोकतंत्र से जुड़े कुछ मूल सवालों को स्पष्ट रूप से देश के सामने रख दिया

- जनता सर्वोच्च है या जनता द्वारा तैयार की गई संस्थाएं?

- व्यवस्था के संचालन में जनता को हस्तेक्षेप करने का अधिकार है या नहीं?

- संसद में होने वाली बहस का एजेंडा सडक़ पर तय हो सकता है या नहीं?

ये सारे सवाल लोकतंत्र को आगे बढ़ाने वाले और जनता की राजनीतिक निष्कियता दूर करने वाले सवाल हैं। मगर, यह आंदोलन आखिरकार लोकतंत्र को मजबूत बनाएगा या नहीं यह अभी से नहीं कहा जा सकता। उन्होंने कहा कि जनता द्वारा चुनी गई संसद जिस तरह से लगातार जनविरोधी नीतियां देश पर थोपती रही है, उससे अब जनता के बीच उसकी कोई साख नहीं रह गई है। मगर, इससे जो राजनीतिक शून्य पैदा हुआ है, उसे अन्ना के आंदोलन का नेतृत्व सिविल सोसाइटी से भरना चाहता है।

ओम प्रकाश ने कहा, यह सिविल सोसाइटी निर्वाचित संस्था नहीं है। इसे कथित आर्थिक सुधारों की जनविरोधी नीतियों से भी कोई दिक्कत नहीं है। यह अकारण नहीं है कि प्रशांत भूषण को छोड़ दें तो इस आंदोलन का कोई भी जिम्मेदार नेता आर्थिक सुधारों की नीति के खिलाफ कुछ नहीं बोलता। उन्होंने कहा कि मौजूदा राजनीतिक शून्य को सिविल सोसाइटी के बजाय जनवादी ताकतों से भरना होगा। तभी बात बनेगी।

अरविंद गौड़

टीम अन्ना के सदस्य और मशहूर रंगकर्मी अरविंद गौड़ ने कहा कि हम पर संसद की तौहीन करने का आरोप लगाया जाता है, लेकिन खुद स्थायी समिति के अध्यक्ष अभिषेक मनु सिंघवी संसद के वादे को झुठला देते हैं तो क्या वह संसद की तौहीन नहीं है? उन्होंने कहा कि कानून तो बनते हैं लेकिन लोगों में उन कानूनों के बारे में जानकारी नहीं होती। उन्होंने कहा कि टीम अन्ना का आंदोलन सिर्फ एक कानून के लिए नहीं है बल्कि जनता को जागरूक बनाने के लिए भी है। उन्होंने कहा कि इस आंदोलन ने आम आदमी को संसद के समानांतर ला खड़ा किया है।

कुलदीप नैयर

प्रसिद्ध पत्रकार कुलदीप नैयर देश में हर 30-35 साल पर परिवर्तन की लहर उठती है। पहले गांधी जी का आंदोलन हुआ। उसके 30 साल बाद देश आजाद हुआ। इसके 30 साल बाद जेपी का आंदोलन हुआ और अब अन्ना का आंदोलन। लेकिन इन आंदोलन के बाद भी कोई फर्क नहीं पड़ा। इसका कारण है कि व्यवस्था में परिवर्तन तो हो जाएगा, पर लोगों में परिवर्तन नहीं हो पाता है। जरूरत है कि लोगों के अंदर परिवर्तन करने की और उन्हें ईमानदार बनाने की। लोगों को उसूलों के प्रति जागरूक बनाने की। उन्होंने कहा कि मुनष्य के अंदर परिवर्तन जरूरी है।

उन्होंने कहा कि लोकपाल बन भी जाए तो उसके साथ हजारो कर्मचारी जोडऩे पड़ेंगे। वे सब तो इसी समाज से जाएंगे। उनके ठीक रहने की गारंटी कैसे ली जा सकेगी? उन्होंने यह भी कहा कि जब जन लोकपाल बिल पर चर्चा हो रही थी तब एक बैठक में मैं भी था। मैंने कहा कि इसमें पाइवेट कंपनियों को क्यों नहीं रखा गया है? लेकिन पाइवेट कंपनियां आज भी इसमें नहीं हैं। जबकि पाइवेट कंपनियों के भष्टाचार पर कश लगाना बेहद जरूरी है। उन्होंने कहा कि आम को अधिक से अधिक शिक्षित करना, उसे जागरूक बनाना जितना जरूरी है, उतना ही जरूरी है उसे ताकत देना। संस्थाओं को या तंत्र को ताकत देने से बात नहीं बनेगी। हमें आम आदमी के हाथों में ताकत देने का कोई रास्ता खोजना होगा।

श्रोता

कार्यकम के आखिर में कुछ श्रोताओं ने जोरदार तरीके से अपनी बात रखकर कार्यकम को और विचारोत्तेजक बना दिया। बदरे आलम ने कहा कि मैं गांव का एक सामान्य किसान मुस्लिम के तौर पर भी अन्ना के आंदोलन को पूर्ण समर्थन देने को तैयार हूं। लेकिन, मेरे लिए अन्ना के आंदोलन में क्या है? न तो आप खेती को सस्ता करते करते हैं और न उपज का पर्याप्त मूल्य दिलाते हैं। अन्ना इस पर एक शब्द नहीं बोल रहे।

एक अन्य श्रोता भुवेंद्र रावत ने लोकपाल कानून बनने के बाद के हालात पर रोशनी डालते हुए कहा, दूर दराज के गांवों से रोजगार की तलाश में लोग दिल्ली आते हैं। उन्हें रहने को कहीं घर नहीं मिलता। दिल्ली में वैध घर हासिल करना सबके बूते की बात नहीं होती। आजकल ऐसे लोग एमसीडी कर्मचारियों को कुछ सौ या हजार रुपए देकर अवैध झोपड़ों में रहने का जुगाड़ कर लेते हैं। लेकिन, लोकपाल कानून बनने के बाद ऐसे एमसीडी कर्मचारियों को जेल हो जाएगी। नतीजतन जेल जाने के डर से ये कर्मचारी उन झोपड़ों को तोड़ देंगे। दिल्ली तो शायद साफ-सुथरी रहेगी, लेकिन उन बेघरों की जिंदगी कैसी होगी जरा इसकी कल्पना कीजिए।

उन्होंने कहा, गांवों के ऐसे सामान्य लोग जो दिल्ली आते हैं तो उनके पास तो पूंजी होती है और ही वे ज्यादा पढ़े-लिखे होते हैं। जब उन्हें कोई काम नहीं मिलता तो कहीं सडक़ के किनारे रेहड़ी लगाना शुरू कर देते हैं। पुलिस, एमसीडी वगैरह के लोगों को हफ्ता देकर भी उनका गुजारा चलने लायक आमदनी हो जाती है। लेकिन, लोकपाल कानून बनने के बाद मॉल वाला इनकी शिकायत करेगा और जेल जाने के डर से एमसीडी वाले इसकी रेहड़ी उजाड़ देंगे। यह कहां जाएगा इसकी चिंता वे लोग नहीं कर रहे जो लोकपाल बिल लाने की लड़ाई में एड़ी-चोटी का जोर लगाए हुए हैं।

Monday 12 December 2011

सीजेआई का चर्चा सत्र, ज़रूर शामिल हों

साथियो, हमें आप सबको यह बताते बेहद खुशी हो रही है कि कंसर्न्ड जर्नलिस्ट्स इनीशिएटिव (सीजेआई) का पहला कार्यक्रम 15 दिसंबर 2011 को नई दिल्ली के गाँधी पीस फाऊंडेसन सभागार मे होने जा रहा है. यह एक चर्चा सत्र है जिसका विषय है, 'भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन: मौजूदा परिदृश्य.'

कार्यक्रम की अध्यक्षता प्रसिद्ध पत्रकार और स्तंभकार श्री कुलदीप नैय्यर करेंगे. सम्मानित वक्ता हैं, जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर सुबोध मालाका, ऑल इंडिया वर्कर्स काउन्सिल के श्री ओमप्रकाश, मशहूर रंगकर्मी और टीम अन्ना के अहम सदस्य श्री अरविंद गौड़ तथा वरिष्ठ पत्रकार श्री जितेंद्र कुमार. कार्यक्रम का संचालन करेंगे सीजेआई के संयोजक श्री अनिल सिन्हा.

इस कार्यक्रम में आप सब सादर आमंत्रित हैं. सभी साथी कृपया अधिक से अधिक संख्या मे शामिल होकर इस कार्यक्रम को सफल बनाएँ.

स्थान: गाँधी पीस फाउंडेशन, दीनदयाल उपाध्याय मार्ग, निकट आईटीओ

तारीख: 15 दिसंबर (गुरुवार), 2011

समय: शाम साढ़े पाँच बजे

Monday 14 November 2011

मीडिया की नादानी और काटज़ू का डंडा

प्रणव प्रियदर्शी

जस्टिस मार्कंडेय काटजू ने जब से मीडियाकर्मियों की कमियां गिनाई हैं, देश में उनके प्रशंसकों की बाढ़ आ गई है। अचानक वह उन सब लोगों के हीरे बन गए हैं जो मीडिया का सबसे ज्यादा इस्तेमाल करते हैं और इसलिए इससे सबसे ज्यादा ऊबे हुए भी हैं। टीवी न्यूज ज्यादा देखने वाले लोग, अखबार ज्यादा पढ़ने वाले लोग ही मीडिया के सबसे बड़े आलोचक हैं। जाहिर है, जो चैनल बदल-बदल कर खबरें देखते हैं और जो एक से ज्यादा अखबार पढ़ते हैं, उन्हें ही इस बात का ज्यादा पता होता है कि किस अखबार या चैनल ने खबर को किस अंदाज में पेश किया। इस आधार पर वे इस बारे में भी राय बनाने की स्थिति में होते हैं कि खास अंदाज में खबरें पेश करने के पीछे खास चैनल या अखबार का क्या हित हो सकता है। जाहिर है, ऐसे पाठक-दर्शक ही मीडिया के बारे में सही या गलत या आधा सही-आधा गलत जैसी भी कहें, राय रखते हैं।


दूसरे शब्दों में कहें तो यह साफ है कि मीडिया का जो सबसे बड़ा आलोचक वर्ग है, उसे ही मीडिया का सबसे ज्यादा फायदा भी हो रहा है। आखिर, राजनीति, सरकार, प्रशासन, व्यापार, खेल, सिनेमा, करप्शन, आंदोलन - इन सबसे जुड़ी हकीकत लोगों तक पहुंच तो रही है। यहां तक कि खबरें पहुंचाने वालों की हकीकत भी पहुंच रही है (तभी तो वे मीडिया का नाम सुनते ही भड़क जाते हैं)।


जस्टिस काटजू चाहे न मानें, उनके नए बने फैन भी न स्वीकार करें, पर यह भारतीय मीडिया की नाकामी नहीं बल्कि उसकी कामयाबी का सबूत है। कुछ कार्यों की प्रकृति ही ऐसी होती है कि करने वाले को तारीफ मुश्किल से मिलती है। और, निंदा तो जैसे उनका इंतजार ही कर रही होती है। हमारे शहर के सफाईकर्मी कुछ काम भी करते हैं, इसका अंदाजा हमें उसी दिन मिलता है जब वे हड़ताल पर जाते हैं। कुछ ऐसा ही हाल मीडियाकर्मियों का भी है। हमें उनकी अहमियत तब पता चलती है जब हम उनकी सेवाओं से दूर हो जाते हैं।


एक राष्ट के रूप में हमने आपातकाल के दौरान सेंसरशिप का स्वाद चखा था और ऐसा सबक सीखा कि अब कोई सेंसरशिप की बात भी नहीं करता। मगर, इस बीच एक ऐसी पीढ़ी आई है जिसने आपातकाल के बारे में थोड़ा-बहुत सुना भर है। 24 घंटे के न्यूज चैनलों के अलावा फेसबुक और ट्विटर तक -उसके सामने मीडिया के नए-नए रूप तो हैं, अभिव्यक्ति की असीम लगने वाली आजादी भी है, उसके दुष्प्रभाव भी है, मगर इन सबका अभाव कैसा होता है या कैसा हो सकता है, इसका कोई अनुभव उसके सामने नहीं है। न ही, इसकी कोई संभावना उसे दिख रही है। लिहाजा, वह मीडिया की खामियों से त्रस्त है और हर हाल में बस उसी से निजात पाना चाहती है। जस्टिस काटजू की बातें उसे मरहम प्रतीत होती हैं।


मगर, यह याद रखना जरूरी है कि जैसे हर चमकती हुई चीज सोना नहीं होती, वैसे ही हर कड़वी बात सौ फीसदी खरी नहीं होती। जस्टिस काटजू कभी सुपीम कोर्ट के जज थे, आज वह प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया के चेयरमैन हैं। जिस शख्स को मीडिया का फ्रेंड, फिलॉसफर ऐंड गाइड बनना है, वह मीडिया को डंडे से हांकना चाहता है। जस्टिस काटजू बाकायदा एलान कर चुके हैं कि डंडा तो उन्हें चाहिए, वह उसे अपने पास रखना चाहते हैं। दयापूर्वक वह कहते हैं कि इसका इस्तेमाल वह पांच फीसदी के खिलाफ ही करेंगे।


और क्यों भला? इसलिए क्योंकि बकौल जस्टिस काटजू मीडियाकर्मी पढ़े-लिखे नहीं हैं। उन्हें न दर्शन का ज्ञान है, न साहित्य का, न राजनीतिक विचारधाराओं का। उनके मुताबिक मीडिया को मुद्दे भी नहीं पता। वह देश की गंभीर समस्याओं पर बात करने के बदले चमक-दमक और सिलेब्रिटीज के नाज-नखरों की बातें ज्यादा करता है।


ज्यादा समय नहीं हुए जब इसी मीडिया ने नाज-नखरों की चिंता छोड़ करप्शन विरोधी आंदोलन को अपना पूरा समय अर्पित कर दिया था। तब सरकार की भी नींद हराम हो गई थी। बहरहाल, जस्टिस काटजू की आलोचना में छिपी सचाई से इनकार नहीं किया जा सकता। इसमें दो राय नहीं कि मीडिया को अपनी कमियां दूर करनी होंगी। लेकिन, इसमें भी कोई संदेह नहीं कि यह काम जस्टिस काटजू के डंडे के जरिए नहीं हो सकता। अगर मीडिया को डंडे से ठीक करने की कोशिश की गई और मीडिया ने इसे स्वीकार कर लिया तो फिर वह मीडिया रह ही नहीं जाएगा जो अपनी तमाम कमजोरियों के बावजूद आज भी मौजूदा लोकतांत्रिक ढांचे की रीढ़ बना हुआ है।


दूसरी बात यह कि आखिर जस्टिस काटजू को किस लिहाज से मीडिया से ऊपर माना जाए? वह मीडिया पर अज्ञानता का आरोप लगाते हैं, लेकिन उनके उस ज्ञान पर ही कैसे भरोसा किया जाए जिसने उन्हें उस विनम्रता तक से वंचित कर दिया जो ज्ञान की पहली विशेषता मानी गई है? मीडियाकर्मी तो मान लिया अज्ञानी हैं, पर ज्ञानी जजों का ही व्यवहार कितना आदर्श रहा है यह बात सुप्रीम कोर्ट की ही एक रिटायर्ड जज (जस्टिस रूमा पाल) हमेंपिछले सप्ताह (तारकुंडे मेमोरियल लेक्चर में) बता चुकी हैं।


सौ बात की एक बात यह है कि जैसे जूडिशरी की गड़बड़ियों का इलाज यह नहीं है कि उसे सरकार के अधीन कर दिया जाए वैसे ही मीडिया की गड़बडि़यों का इलाज यह नहीं है कि उसे किसी जस्टिस काटजू के डंडे से हंकने के लिए मजबूर किया जाए, भले वह जस्टिस काटजू प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया का अध्यक्ष ही क्यों न हो। हां, यह सवाल जरूर है कि मीडिया की अंतर्निहित विशेषताओं से इस कदर अनजान और प्रेस की गरिमा के प्रति इस हद तक संवेदनहीन किसी शख्स को प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया के अध्यक्ष जैसे पद पर बने रहना चाहिए या नहीं भले वह शख्स जस्टिस काटजू जैसा ज्ञानी ही क्यों न हो
(नवभारत टाइम्‍स क्स ब्लॉग अंधेर नगरी से साभार )