Wednesday 14 May 2014

भूखा मरने के बाद भी खत्म नहीं हुई संपादक की जिल्लत

मध्य प्रदेश के बैतूल जिले में एक स्थानीय संपादक की नौकरी से निकाले जाने के बाद भूख से मौत की खबर विचलित करने वाली है। (पूरी खबर पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)। इस मौत ने कई सवाल उठाए हैं। पत्रकार प्रदीप उर्फ मौनू रैकवार की पारिवारिक स्थितियों से जुड़े सवालों को निजी मानकर फिलहाल छोड़ दिया जाए तो भी उनका बिना किसी नोटिस और मुआवजे के नौकरी से निकाला जाना, नौकरी छूटते ही भूखों मरने की स्थिति में आ जाना, मौत के बाद संबंधित अखबार के प्रबंधन द्वारा उन्हें अपना पूर्व कर्मचारी या पत्रकार तक मानने से इनकार करना, जिला जनसंपर्क विभाग द्वारा भी उन्हें पत्रकार न मानना और अंतिम संस्कार तक के लिए पत्रकार जगत के संवेदनशील और जिम्मेदार सदस्यों द्वारा चंदा इकट्ठा करना – ये सब इस बात का ज्वलंत प्रमाण हैं कि देश के विभिन्न छोटे-छोटे शहरों में पत्रकारों को किन दयनीय हालात में काम करना पड़ता है। यह भी गौर करने की बात है कि जो अपने पेशे की गंभीरता को समझते हुए स्वाभिमान और गरिमा के साथ अपने दायित्वों का निर्वाह करना चाहते हैं उन्हें ज्यादा मुश्किलें झेलनी पड़ती हैं। अगर स्थानीय संपादक के तौर पर प्रदीप प्रबंधन के इशारे पर नाचने को तैयार रहते तो संभवतः उन्हें ऐसे नौकरी से निकाला नहीं जाता। दूसरी और ज्यादा चिंताजनक बात है कथित बड़े बैनरों वाले मीडिया हाउसों से जुड़े पत्रकारों का रवैया। बैतूल की पत्रकार बिरादरी के ज्यादातर सदस्यों की भूमिका सकारात्मक और जवाबदेही भरी रही। इसके लिए उन्हें सलाम। मगर, कुछेक पत्रकारों ने (जो कथित तौर पर संबंधित अखबार के मालिकान से एहसान लेते रहे हैं) पत्रकार प्रदीप की मौत को शराब पीने से हुई मौत बताकर जाने-अनजाने मामले को दूसरा रंग दे दिया। बेशक, इस तरह की रिपोर्टिंग से वह अखबार प्रबंधन खुश हुआ होगा, जिसने प्रदीप को पत्रकार मानने से भी इनकार कर दिया था। सचाई समझने और पाठकों तक पहुंचाने के लिए पत्रकारों को न केवल प्रतिनिधि तथ्यों का चयन करना होता है बल्कि उन्हें सही संदर्भों में भी रखना होता है। मौजूदा मामले में अगर प्रदीप ने शराब पीनी शुरू भी कर दी थी तो यह उनके जीवन के अवसाद का परिणाम था। दूसरी बात, घर की माली हालत इस बात का जीता-जागता उदाहरण है कि वे अय्य़ाश नहीं थे, न ही समझैतापरस्त भ्रष्ट पत्रकारों में उनकी गिनती की जा सकती है। पत्रकार प्रदीप को श्रद्धांजलि देते हुए पत्रकारिता के उनके जज्बे को हम सलाम करते हैं। इस मामले पर में जिम्मेदार रिपोर्टिंग के आरोपों के मद्देनजर हम अपने साथियों से अधिक सजगता की अपील करते हैं और जिन साथियों ने मृत पत्रकार को मरणोपरांत ही सही, पर समुचित सम्मान और मृतक के परिवार को न्याय दिलाने की मुहिम शुरू की है, उन्हें बधाई देते हुए यह बताना चाहते हैं कि यह बैतूल के पत्रकारों की ही नहीं, हम सबकी साझा लड़ाई है। हमें यह बात भी समझनी होगी कि मृतक के परिवार के लिए थोड़ा-बहुत मुआवजा भर हासिल कर लेना इस लड़ाई का मकसद नहीं हो सकता (हालांकि वह अनिवार्य पहला कदम जरूर है)। पत्रकारों के सम्मान की यह लड़ाई समाज के तमाम वंचित, पीड़ित, शोषित समूहों के सम्मान और हक की लडाई से अभिन्न रूप में जुड़ी हुई है। इन तमाम लडाइयों को एक-दूसरे से जोड़ते हुए सम्मिलित लड़ाई लड़कर और जीत कर ही हम ऐसे समाज की ओर कदम बढ़ा सकते हैं जिसमें स्वाभिमान और सच्चाई को जीवन मूल्य बनाने वालों को ऐसी जिल्लत से न गुजरना पड़े।

Tuesday 20 August 2013

पत्रकार मित्रो, अब तो चेतो

मालंच

सीएनएन-आईबीएन-आईबीएन 7 के 350 पत्रकार - गैर पत्रकार कर्मचारियों की छंटनी ने दिल्ली के पूरे मीडिया जगत को सकते में डाल दिया है। चर्चा यह है कि अभी और 200 लोगों की छंटनी होनी है। जो अपनी नौकरी गंवा चुके, उनके सामने तो वैकल्पिक रोजगार की समस्या मुंह बाए खड़ी हो ही चुकी है, बाकी लोग इस आशंका में हलाकान हैं कि कहीं अगली सूची में उनका नाम न हो। इस ग्रुप से बाहर के, अन्य मीडिया संस्थानों में काम कर रहे लोग भी इस भू स्खलन की खबर से पसीने-पसीने हो गए हैं। सबको पता है, यह कोई ऐसी अनोखी बात नहीं है जो एक ग्रुप में हुआ और दूसरे ग्रुप में नहीं हो सकता। किसी भी वक्त किसी भी ग्रुप का प्रबंधन ऐसा फैसला कर सकता है। और जैसे हालात बनते जा रहे हैं, उसमें उसे प्रतिरोध की रत्ती भर भी आशंका रखने की जरूरत महसूस नहीं होगी।
इस फैसले में भी संस्थान के अंदर और बाहर प्रतिरोध की कवायद शुरू करने की कोशिश में लगीं ताकतें जिस अवस्था में हैं उसे देखते हुए प्रबंधन उनसे सहमना तो दूर, उन पर दया ही करेगा। मगर प्रतिरोध की बात करने से पहले इस कदम के कुछेक महत्वपूर्ण पहलुओं पर बात कर लेना बेहतर होगा।
प्रबंधन की तरफ से इस जनसंहार की प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से तीन वजहें बताई जा रही हैं। एक, ग्रुप को हो रहा आर्थिक घाटा, दो ट्राई के एक घंटे में अधिकतम दस मिनट का विज्ञापन दिखाने से जुड़ा निर्देश जिससे कंपनी का राजस्व कम हो जाएगा और तीन, हिंदी और अंग्रेजी के अलग-अलग रिपोर्टर रखना संसाधन की बर्बादी है।
इन तीनों कथित कारणों की धज्जियां उड़ाई जा चुकी हैं। (उदाहरण के लिए यह लिंक देखे )
सच यह है कि इस तरह के बहाने बनाकर कोई भी समूह अपनी लागत कम करने की कोशिश करता है। लागत कम करना उसके अधिकतम संभव लाभ के उसके तर्क के अमलीकरण के लिए अपरिहार्य होता है। वरना गलाकाट प्रतिस्पर्धा के दौर में उस समूह का अपने प्रतिद्वंद्वियों को पीटते हुए आगे बढ़ना असंभव हो जाता है।
मगर, यहीं वह सवाल सामने आता है कि अपने कर्मचारियों की जिंदगी से खिलवाड़ इन पूंजी मालिकों को इतना आसान क्यों लगने लगता है कि आपसी प्रतिद्वंद्विता में ये उस कर्मचारी समूह को सूली पर चढ़ाते चले जाते हैं जिसके दम पर, जिसकी मेहनत पर उनका पूरा कारोबार टिका हुआ है? यहां सवाल इच्छा का या नीयत का या सदाशयता का नहीं है। सवाल है समाज में शक्ति के संतुलन का। पूंजी की शक्तियों ने जिस तरह की मनमानी आज शुरू की है, उससे पहले उन्होंने तैयारी का लंबा दौर चलाया। उस दौर में कर्मचारियों या मेहनतकश तबकों की ताकत के तमाम स्रोत ढूंढ-ढूंढ कर खत्म किए जाते रहे। चाहे वह विचारधारा हो या यूनियन हो या समाज के लिए कुछ करने की भावना हो – इन सबसे कामगार समूहों को अलग करने के सुनियोजित प्रयास किए गए। कर्मचारियों के मन में ऑफिसर होने का भाव भरा गया। पत्रकारों को यह कहा गया कि तुम कोई क्लर्क नहीं हो ऑफिसों में काम करने वालों से कहा गया आप तो दिमागी काम करते हैं, आप मजदूर थोड़े ही हैं? कहीं किसी को मराठी कहा गया, जो खुद को परप्रांतीयों से अलग और ऊंचा मानने लग जाए तो किसी को धर्म और जाति के आधार पर दूसरों से श्रेष्ठ कहते हुए अलग कर दिया गया। जो,इन सब चक्करों में नहीं पड़े उन्हें करियर की मुगली घुट्टी पिलाते हुए जीवन में आगे बढ़ने का मंत्र सिखाया गया। तुम्हें दूसरों से क्या मतलब, अपनी चिंता करो, अपना फायदा देखो। इसे ही जीवन दर्शन के रूप में प्रचारित किया जाता रहा।
नतीजा यह हुआ कि मीडियाकर्मी भी बाजार का पहरुआ बन खुद को गौरवान्वित महसूस करते रहे और समाज के लिए खड़ी होने वाली ताकतों को अप्रासंगिक करार देकर बेमौत मारने की साजिश से पूरी तरह उदासीन बने रहे।
अब जब पूंजी मालिकों ने अपने उस काम को अंजाम दे दिया है और उस मोर्चे पर काफी हद तक बेफिक्र हो चुके हैं तो ब्रैंड वैल्यू की चिंता छोड़ कर और समाज में विरोध की आशंका से मुक्त होकर पूरी बेशर्मी से हायर एंड फायर की नीति को अपना अधिकार बताते हुए सामूहिक छंटनी के कार्यक्रम चला रहे हैं। सीएनएन-आईबीएन से पहले भी अलग-अलग समूह ये कार्यक्रम चलाते रहे हैं। सिर्फ दिल्ली की बात करें तो भी पिछले सितंबरम  एनडीटीवी ने 50 से ज्यादा पत्रकारों को निकाला था। दैनिक भास्कर से हाल ही में 16 पत्रकार निकाले गए थे। आटलुक ने अपनी तीन पत्रिकाएं बंद कर दीं जिससे 42 पत्रकार एक झटके में बेरोजगार हो गए...।
यह सूची यहीं खत्म नहीं होती। मगर, यह संदेश साफ हो जाता है कि एक सीएन-आईबीएन ग्रुप या मुकेश अंबानी को गालियां देकर इस समस्या का हल नहीं निकल सकता। यह कहना भी व्यावहारिक नहीं कि अन्य संस्थानों में काम कर रहे सारे पत्रकार अपनी नौकरी की चिंता छोड़ सीएन-आईबीएन के पत्रकारों के साथ धरने पर बैठना शुरू कर दें। मगर, यह तर्क भी बेमानी है कि ऐसा ही होता रहा है इसलिए ऐसा ही होने दिया जाता रहे।
इस मामले में दो-तीन अहम मोर्चे हैं। पहला और सबसे बड़ा मोर्चा निकाले गए पत्रकार-गैर पत्रकार कर्मचारियों के प्रतिरोध का है। चूंकि ऐसे कुछ कर्मचारियों ने हिम्मत दिखाई है और वे एकजुट होने की कोशिश कर रहे हैं, इसलिए प्रतिरोध के उस स्वर को ताकत देना, उसके स्वर में अपना स्वर मिलाना पहली और सबसे बड़ी जरूरत है। दूसरा मोर्चा है न्यायिक विरोध का। कुछ लोग इस मामले को अदालत में ले जाने की भी तैयारी कर रहे हैं। कानून के जानकारों से राय-मशविरा कर उस दिशा में अगर बात आगे बढ़ती है तो वह भी एक अहम मोर्चा है जहां लड़ाई तेज की जा सकती है।
तीसरा और सबसे अहम मोर्चा है समाज से एकजुटता का। पत्रकारों को न केवल अपने पेशे के अन्य लोगों से पूरी पत्रकार बिरादरी से एकजुटता बनाए रखने की जरूरत है बल्कि समाज के अन्य वंचित तबकों से भी अपने सरोकार जोड़ने होंगे। पत्रकार इस लड़ाई में अकेले नहीं हैं। समाज के अलग-अलग हिस्से पहले से ही संघर्ष में उतरे हुए हैं। उन समूहों को उनके संघर्ष में समर्थन देना और उन्हें अपने संघर्षों से जोड़ना दोनों की सफलता के लिए जरूरी है। अगर मैं सही समझ पाया हूं तो सीजेआई या कन्सर्न्ड जर्नलिस्ट्स इनीशिएटिव (जिस संगठन का मंच यह ब्लॉग है) अपनी स्थापना के बाद से यही बात कह रहा है।
अगर हम इन तीनों मोर्चों पर मजबूती से आगे बढ़ सके तो कोई कारण नहीं है कि पूंजी की मनमानी पर प्रभावी ढंग से समाज का अंकुश न लग सके। अगर हम नौकरी खोने के बाद दूसरी नौकरी पाने तक इस संघर्ष को सीमित रखते हैं और चुनौतियों को वैयक्तिक संदर्भों में लेने की अपनी आदत नहीं बदलते तो हमारी यानी किसी खास शख्स की नौकरी बचे या जाए, उसे दूसरी नौकरी दर-दर की ठकरें खाने के बाद मिले या तुरंत – हमारे सिरों पर पहाड़ टूटने का यह सिलसिला जारी रहेगा और हम अपना सिर बचाने की तड़प में इधर से उधर भागते रहेंगे।

(लेखक से इस ईमेल पर संपर्क कर सकते हैं maalanchm@gmail.com)

Friday 7 June 2013

ताकि हमारे बगीचे सी चहकने लगे यह दुनिया

प्रणव एन
आजकल जब दिल्ली में पारा नए रेकॉर्ड बना रहा है और गर्मी जीना मुहाल किए हुए है, ऐसे में हमारा बगीचा गुलजार हो गया है। गर्मियां शुरू होने के बाद पीने के पानी की समस्या जैसे हम इंसानों के सामने आती है उसी तरह पशु-पक्षियों के सामने भी आती है। इस समस्या से सातवीं क्लास में पढ़ने वाली हमारी बेटी भी वाकिफ है और वह अपने आसपास के जीव जगत को लेकर संवेदनशील भी है। प्रस्ताव उसी ने रखा। हम पति-पत्नी भी फटाफट तैयार हो गए। एक बड़ा सा (जो कि वास्तव में बहुत छोटा सा है) मिट्टी का बर्तन खऱीद लाए और उसे गार्डेन में रख दिया। सुबह, दोपहर, शाम जब भी वह खाली लगने लगता है उसे पानी से भर दिया जाता है। साथ में दुकान से खरीदा गया थोड़ा बाजरा भी वहीं बरतन के पास छींट देते हैं।

इस छोटे से उपक्रम ने हमारे बगीचे को जैसे जीवंत बना दिया है। सुबह उठने के बाद से डाइनिंग हॉल में पेपर पढ़ते, चाय पीते हुए जो वक्त हमारा बीतता है, वह पहले के मुकाबले कहीं ज्यादा दिलचस्प और आनंददायक हो गया है। भांति-भांति की चिड़ियां यहां आती है, पानी पीती हैं, मन हुआ तो दाना भी चुगती है और फिर चली जाती हैं। इच्छा हुई तो थोड़ी देर बाद फिर आ जाती हैं। दिल्ली में इतनी तरह की चिड़ियां हैं यह भी हमें पता नहीं था।
एक और दिलचस्प बात यह कि पानी का बरतन देने के साथ ही हमने दाने भी छींट दिए थे। पानी पीने चिड़ियां थोड़ी देर बाद से ही आने लगीं, मगर दाना खाने में हिचकिचाईं और यह हिचकिचाहट लंबी चली। हम देखते कि पानी पीने तो ये चिड़ियां आती हैं, पर पानी पीकर चली जाती हैं। दानों की तरफ देखतीं भी नहीं। पहले दिन, दूसरे दिन...
मगर, तीसरे दिन हमने देखा कि कुछ चिड़ियों ने दाना चुगना शुरू किया है। उसके बाद यह सिलसिला तेज होता गया और फिर तो चिड़ियां जिस तत्परता से पानी पीती थीं उससे ज्यादा तत्परता दाना चुगने में दिखाने लगीं।
हमारे लिए सबक यह था कि इस दुनिया में मासूमियत और सरलता जैसी विशेषताएं पशु-पक्षियों के बीच से भी गायब होती जा रही हैं। उन्हें भी अपने अनुभवों से एहसास होने लगा है कि मासूमियत या सरलता ऐसी चीज है जिसकी कीमत जान देकर ही चुकानी पड़ती है।
पानी और दाना डालने के इस अनुभव ने हमारी दैनिक जिंदगी की क्वालिटी बेशक बढ़ा दी है। इसमें आनंद के पल और उनकी मात्रा काफी बढ़ गई है। लेकिन यह एहसास भी तीव्र हो गया है कि दुनिया जैसी चल रही है, वैसे ही चलने दी गई तो यह और दुरूह होती जाएगी। सादगी, सरलता और मासूमियत जैसी चीजें विलुप्त होती जाएंगी। अधिकाधिक हासिल करने की होड़ में जीतने को आतुर इंसान इन सबको नष्ट करता जाएगा।
दरअसल हम इंसान जो अन्य जीव-जंतुओं तथा अपने पूरे परिवेश के प्रति इतने संवेदनहीन हो गए हैं उसकी सबसे बड़ी वजह है हमारा लालच। इस दुनिया को बदशकल करते जाने इसकी सुंदरता को नष्ट करते जाने में जितनी बड़ी भूमिका इंसानी समाज के लालच की रही है उतनी किसी और चीज की नहीं।
गौर करने की बात है कि तीन-चार सौ वर्ष ही हुए हैं जब हमने लालच को बाकायदा सर्वोच्चता प्रदान कर दी। उससे पहले भी लालच की प्रवृत्ति थी। वह अन्य प्रवृत्तियों को कुचलने का सहज अभियान भी चलाती थी। उसमें उसे कामयाबी भी मिलती थी। लेकिन, ये कामयाबियां स्थायी नहीं होती थीं। उसे अन्य प्रवृत्तियों जैसे दया, करुणा, परोपकार और सबसे ज्यादा विवेक से जूझना पड़ता था। समाज ने लालच के सामने लाचारी भले कई बार महसूस की हो, उसे आदर्श के रूप में कभी स्वीकार नहीं किया।
मगर सामंतवाद से पूंजीवाद में संक्रमण ने यह काम कर दिया। पूंजीवाद ने अधिकतम संभव लाभ के तर्क को महिमामंडित करते हुए उसे सर्वोच्च स्थान प्रदान कर दिया। यह सुनिश्चत कर दिया गया कि दुनिया भर में बाकी सारी बातें उसी से तय होने लग जाएं। इसके बाद औद्योगिक क्रांति ने इस सिद्धांत को व्यवहार में सौ फीसदी लागू कराने लायक हालात बना दिए। लालच की प्रवृत्ति को संस्थागत स्वरूप देने वाली बड़ी-बड़ी कंपनियां खड़ी हो गईं जो पूंजी के ढेर की बदौलत दुनिया भर की सरकारों को अपने इशारे पर नचाने लगीं।
पिछले तीन-चार सौ सालों में इंसान ने क्या-क्या हासिल किया यह तो हम देखते हैं, मगर उसने क्या-क्या नष्ट किया यह देखें तो रोंगटे खड़े हो जाते हैं। पृथ्वी, जल और वायु हमने किसी को भी अछूता नहीं छोड़ा। जीवों की कितनी प्रजातियां इंसानी लालच की प्रचंड अग्नि में जलकर स्वाहा हो गईं, हमें हिसाब लगाने तक की फुरसत नहीं है। धरती का सीना खोद-खोद कर हमने खनिज  पदार्थ निकाले और इतने निकाले कि धरती का शरीर छलनी-छलनी हो गया। सागर से भी हमने तेल औऱ तरह-तरह की गैस निकालने में कोई कसर नहीं बाकी रखी। हवा का हमने क्या हाल कर दिया यह तो सांस लेने वाला हर प्राणी महसूस करता है। अब जब धरती की संपदा कम पड़ने लगी है तो हम चांद और मंगल का रुख कर रहे हैं ताकि वहां छिपी संपदा पर भी हमारा कब्जा हो जाए। उन ग्रहों को भी हम नष्ट करें।
मगर, इतना सब करके भी क्या हम अपनी बुनियादी जरूरतें पूरी कर सके हैं? आज भी इंसानी समाज का एक बड़ा हिस्सा अपनी भूख तक नहीं मिटा पा रहा। बच्चे ठीक-ठाक खाना न मिलने की वजह से बीमारी और अकाल मौत का शिकार हो रहे हैं। हो भी क्यों न!  आखिर लालच की प्रवृत्ति दोधारी तलवार जो ठहरी। यह अधिक से अधिक जुटाने में जितनी ताकत लगाती है, उतनी ही ताकत जुटाई हुई चीजों को अपने तक सीमित रखने में भी लगाती है। चूंकि लालच के ऊपर विवेक का कोई अंकुश नहीं रह गया है, इसलिए सही-गलत जैसे सवाल उठते ही नहीं। इंसानी समाज का जो हिस्सा सही-गलत को परे रखकर अपने लिए अधिक से अधिक लाभ हासिल करता है, वही हिस्सा उस लाभ में दूसरे लोगों के जायज हिस्से के सवाल को भी निगल जाता है। वह उस पूरी संपत्ति पर अपना हक बताते हुए उसे पूरी ताकत से अपने कब्जे में ही बनाए रखता है। उस हिस्से का इस्तेमाल वह पूरी निर्ममता से अपने लिए आगे और ज्यादा संपत्ति जुटाने में करता है। इस क्रम में इंसानी समाज का जो हिस्सा अब भी वंचित है, उसे वह नालायक करार देते हुए पूरी निर्लज्जता से कहता है कि दुनिया तो है ही समर्थों की। जिनमें जीने की काबिलियत है वे जिएंगे और जिनमें नहीं है, वे नष्ट हो जाएंगे। यही प्रकृति का नियम है। सो, प्रकृति के इस नियम के सहारे वह न केवल अपने शरीर को सुख देने वाली चीजें इकट्ठा करता जा रहा है बल्कि बाकी इंसानों समेत तमाम जीव जंतुओं की जिंदगी को नारकीय भी बनाता जा रहा है।
मगर, किसे फुरसत है कि इन जीव जंतुओं के बारे में सोचे। इनकी जिंदगी को थोड़ा सुकून भरा बनाकर अपने लिए थोड़ा संतोष हासिल करने की सोचे।
आखिर संतोष तो आपको मुनाफा नहीं देता ना, बल्कि मुनाफे को बढ़ाते रहने की अंतहीन दौड़ से अलग हटने की ही प्रेरणा देता है। सो, संतोष अच्छी चीज कैसे हो सकती है? यह बेकार ही नहीं, खतरनाक भी है। आप जहां नौकरी करते हैं, अगर वहां यह कहने लग जाएं कि अधिक से अधिक की चाहत अच्छी बात नहीं होती और हमें कम में भी संतुष्ट हो जाना चाहिए तो आश्चर्य नहीं कि आपको पागल समझा जाने लगे। अगर आप अपनी इस मान्यता पर गंभीर हो जाएं और इसे अमल में लाने लगें तो आपकी नौकरी जाते भी वक्त नहीं लगेगा।
ऐसी ही हो गई है यह दुनिया। जो भी बाते अधिकतम संभव मुनाफे की राह में रोड़ा बन सकती हैं वे बेकार हैं, गलत हैं, खतरनाक हैं। चाहे वे आदिवासियों की सरलता हो या पर्यावरण को बचाए रखने का तर्क या अन्य जीव- जंतुओं की चिंता करने का आग्रह।  ऐसे में अगर इस ग्रह को मृत ग्रह में बदलने से रोकना है, अगर दुनिया को जिंदा रहने लायक बनाए रखना है तो रास्ता एक ही है। लालच की इस प्रवृत्ति के कब्जे से इंसानी समाज को निकालना होगा।
पूंजी के सहारे बाकायदा किलेबंदी करके लालच की इस प्रवृत्ति ने संरचनागत ढांचे खड़े किए और उनके जरिए मानव समाज की नाक में नकेल डाल रखी है। इसलिए जवाबी ढांचा खड़ा किए बगैर यह लड़ाई लड़ी और जीती नहीं जा सकती।
पूंजी के तर्क का जवाब श्रम का तर्क ही हो सकता है। यही तर्क जवाबी किलेबंदी का आधार बन सकता है। इसी के सहारे पूरे समाज को गोलबंद करके व्यूह रचना करनी होगी और लालच की इस प्रवृत्ति से निर्णायक लड़ाई लड़कर उसे हमेशा के लिए पराजित करना होगा। विवेकशीलता को निर्णायक भूमिका सौंपनी होगी।

तभी पूरा इंसानी समाज अपनी खोई गरिमा हासिल कर सकेगा, इंसान जैसी जिंदगी बिता पाएगा और तमाम जीव- जंतुओं से युक्त यह धरती वैसे ही खुशियों से चहकेगी जैसे कि हमारा बगीचा आजकल चहक रहा है।
('स्वतंत्र जनसमाचार' से साभार)

Sunday 28 October 2012

Media in dock

Anil Sinha


The legal battle between Navin Jindal and Zee TV has exposed weaknesses with which India has been infested since long. Jindal called a press conference to say that two senior journalists, Sudhir Choudhary and Samir Ahloowalia from Zee TV demanded advertising commitments of Rs. 100 crore  over five years for suppressing news related to alleged involvement of Jindal Steel and Power Limited(JSPL) in coal-block allocation scam. Jindal arranged a sting as the purpose of journalists’ visit was known to them.
Mumbai High Court has already issued notices to Zee Tv owner Subhash Chandra and the two journalists who had gone to visit  JSPL’s officials allegedly to negotiate the  deal. Zee has filed a suit of defamation for trying to bribe his editors and releasing a doctored video of the conversation between Jindal’s officials and editors to defame the channel
Both the sides  aggressively pleading in favor of their respective  versions of the same incident.  Jindal has also filed a police case which means there would be a police investigation into the case and the government machinery would be involved. It is clear that Jindal is relying on his money and political power to fight against the channel. On the other hand, the channel is relying on nuisance value media enjoys. In my view, the battle could expose only a part of the disease Indian media has chronically been infested with.
Those who know Jindal are aware how he manages media in Chhattisgarh and elsewhere. I was in Raipur with Jansatta and have seen his style of functioning. No media can go against him. He manages it effectively and in this case he might have tried the same. Here is every possibility that they were negotiating some deal which could not materialize due to some obstinacy on either part
I wish to suggest that it is pointless to attempt a probe whether Zee tried to extract an advertising commitment or Jindal attempted to bribe the channel. There is no point in it. Both the things have similar consequences, the news would be compromised
We seem to have forgotten Radia controversy. Editor of Hindustan Times Vir Sanghvi and NDTV’s Barkha Dutt were recorded  assuring Radia  they would help her to snatch a favor for her company. Even by risking their credibility, both the media houses did nothing against two erring journalists. Do we need to explore the reason? It is clear that they had been working for their houses and must be aware of wrongdoings by their masters. How come their masters would have acted against these journalists
We have already Press Council’s report on paid news and we know how newspapers and channels have been working to subvert elections by planting fabricated news. It will be hypocritical on the part of media-persons if they show ignorance of what is going under the garb of producing news. After all four media houses wee found involved in coal block allocation scam. Do we need any imagination to understand that these media houses were doing something which does not fall within the purview of the profession we call journalism
It is well known that, in recent years, journalists with extra-journalistic capabilities have risen to unexpected heights. Some of them have themselves become owners of media houses. Only few newspapers are there who really care for ethics. It means that some thing is being done in the name of media which is much more remunerative than the simple professional work.
I have heard defenders of the current state of affairs in media. One among such arguments has been that Indian  media has been depoliticized and has grown to become more professional now. They say how in earlier times speeches of prime ministers and presidents made news and were getting high priority over other news. I would like to remind that those were also the days when even  interviews of Naxal leaders like Kanu Sanyal ,  Satyanarayan Singh or Vinayan were  getting due  importance in newspapers. This shows that media was not towing government lines. Now naxalies are termed criminals and policemen fighting against them with all the illegal means at their hands are being termed as martyrs. The state is waging war against its own people, and media is supporting it. This convergence of ideas and purpose certainly takes us to a terrain where no democracy could survive. Both the state and media have connived to submit to the wishes of market

A media which is subservient to the establishment and the market can not remain honest and neutral. It is bound to become dishonest and partisan. How can you expect it to work without profit? And profit could include whole range of benefits from advertisement to contracts. Many things which were earlier more collateral benefits for media houses have now  become part of their commercial operation. We need to evolve a new model of media operation if we want media to play its required role in our democracy.

Monday 1 October 2012

'करप्शन से लड़ाई में मीडिया को समाज ही दे सकता है संजीवनी'


एक समय था जब मीडिया पर करप्शन के सन्दर्भ में गड़बड़ियों के आरोप उसके कुछेक रूपों का तर्कों-वितर्कों-कुतर्कों से बचाव करने तक सीमित रहा करते थे, मगर अब आरोप सीधे-सीधे करप्शन में भागीदारी के लगने लगे हैं. नीरा राडिया काण्ड और कोलगेट में मीडियाकर्मी और मीडिया संस्थान जिस तरह सीधे तौर पर आरोपों से घिरे उसके बाद कहने-सुनने की गुंजाइश कम ही रह जाती है. मगर अहम् सवाल यह है क़ि हालात बदले कैसे जाएँ. इस लिहाज से देखें तो मीडिया के अन्दर मीडियाकर्मियों को ताकतवर बनाना, उनकी असुरक्षा कम करना जरूरी लगता है. मीडियाकर्मियों को मजबूती समाज की जागरूक ताकतें ही दे सकती हैं, पर समाज की ताकतें भी आज बाजार की ताकतों के सामने पस्त पडी हैं. ऐसे में रास्ता यही हो सकता है क़ि मीडियाकर्मी और समाज एक दूसरे का हाथ थाम एक-दूसरे की ताकत बढाते चलें. करप्शन से लड़ाई में मीडिया को संजीवनी समाज से ही मिल सकती है.

यह  निचोड़ है गत २४ सितम्बर को दिल्ली के गाँधी पीस फाउंडेशन में 'करप्शन और मीडिया' विषय पर करीब ढाई घंटे चली उस चर्चा का जिसका आयोजन कंसर्न्ड जर्नलिस्ट्स इनीशिएटिव (सीजेआई) और चंपा द अमिया एंड बी जी राव फाउंडेशन ने संयुक्त रूप से किया था. कार्यक्रम की अध्यक्षता प्रसिद्ध पत्रकार और स्तंभकार श्री कुलदीप नैय्यर ने की.

बीमारी गहरी है
चर्चा की शुरुआत सीजेआई के संयोजक श्री अनिल सिन्हा ने की. उन्होंने कहा क़ि मीडिया संस्थानों के मालिकान अब जिस तरह से येन-केन-प्रकारेण कांट्रेक्ट हासिल करने या मीडिया के प्रभाव का इस्तेमाल करते हुए अपने बिजनेस हितों को आगे बढाने में लगे हुए हैं उसे देखते हुए यह समझना मुश्किल नहीं क़ि बीमारी काफी गहरे उतर चुकी है.मीडिया का करप्ट हिस्सा मौजूदा भ्रष्ट राजनीति का सहभागी बन कर अपना प्रभाव बढाता जा रहा है और बीमारी को और गंभीर बनता जा रहा है.
उन्होंने कहा क़ि इस स्थिति को चुनौती मीडिया के अन्दर से ही मिल सकती है. पत्रकारों की असुरक्षा को कम करने और उन्हें ताकत देने की जरूरत है.

ताकत देगा कौन
वरिष्ठ पत्रकार अरुण कुमार त्रिपाठी ने कहा क़ि तमाम विपरीतताओं के बावजूद आज भी ऐसे पत्रकारों की कमी नहीं है जो मूल्यों के लिए खड़े होने को अपना गौरव मानते हैं, जिन्हें यह सुन कर अफ़सोस नहीं होता की उन्हें पैसा बनाना नहीं आता. मगर ऐसे पत्रकार लगातार हाशिये पर पहुंचाए जा रहे हैं. मूल सवाल यह है की पत्रकारों को ताकत कहाँ से मिलेगी. ये अपनी और पेशे की गरिमा की लड़ाई लड़ने को खड़े होने पर खुद को अकेले पाते हैं. न तो उन्हें अपने मीडिया संस्थान से कोई मदद मिलती है न दूसरे मीडिया संस्थानों से.श्री त्रिपाठी ने कहा क़ि अब सोशल मीडिया उम्मीद की किरण बन कर आये हैं. इनका समुचित इस्तेमाल किया जाना चाहिए.

एकाधिकार की प्रवृत्ति पर अंकुश लगे
ऑल इण्डिया इंस्टिट्यूट ऑफ मास कम्युनिकेशन के असोसिएट प्रोफ़ेसर डॉ. आनंद प्रधान ने कहा क़ि मीडिया में एकाधिकार के बढती प्रवृत्ति पर अंकुश लगाने की जरूरत है. उन्होंने कहा की क्रॉस मीडिया ओनरशिप को भी नियमित किया जाना चाहिए.
डॉ. प्रधान ने कहा क़ि मीडिया से जुड़े मसलों पर लॉबींग की जरूरत है और सीजेआई जैसे संगठनो को सांसदों के साथ भी संपर्क में रहना चाहिए ताकि इन मसलो पर उनका समर्थन जुटा कर सरकार को जरूरी क़दमों के लिए प्रेरित किया जा सके.

शोषण सबसे बड़ा भ्रष्टाचार
जाने माने सामाजिक कार्यकर्ता शिवमंगल सिद्धांतकार ने कहा क़ि जब बात भ्रष्टाचार की हो तो यह रेखांकित करना जरूरी हो जाता है क़ि श्रम का शोषण सबसे बड़ा भ्रष्टाचार है. उन्होंने कहा क़ि अन्य क्षेत्रों की तरह मीडिया में भी यह शोषण जबरदस्त ढंग से व्याप्त है. उन्होंने कहा क़ि करप्शन के सन्दर्भ में मीडिया की भूमिका सकारात्मक रूप तभी ले सकती है जब यह सत्ता शिखरों की ओर केन्द्रित न होकर मेहनतकश आबादी की ओर रुख करे.

खुद को मजबूत करें
अपने अध्यक्षीय संबोधन में कुलदीप नैय्यर ने कहा क़ि समाधान कहीं बाहर नहीं बल्कि अपने पास ही है. उन्होंने कहा क़ि मौजूदा हालात से चिंतित संवेदनशील पत्रकारों (कंसर्न्ड जर्नलिस्ट्स) को एक मंच पर आना चाहिए, इस इनीशिएटिव से जुड़ना चाहिए, अपनी सदस्यता बढानी चाहिए. अगर आप इतना भी कर लें तो आपकी ताकत इतनी बड़ी हो जायेगी क़ि आपके सुझावों को हलके में लेना किसी भी सरकार के लिए मुश्किल हो जाएगा.
उन्होंने कहा क़ि मौजूदा चुनौतियों से निपटने के लिए मीडिया को इन्टरनल रिस्ट्रक्चरिंग से गुजरना होगा. उन्होंने सरकार से एक प्रेस आयोग गठित करने की मांग करते हुए कहा क़ि करप्शन से मुकाबला करने के लिए मीडिया में भी पारदर्शिता लानी होगी और प्रेस आयोग का गठन इस दिशा में एक जरूरी कदम है.

तीन सुझाव
वरिष्ठ गांधीवादी कार्यकर्ता श्री राम शरण ने अपने संक्षिप्त संबोधन में तीन सुझाव रखे. १, मीडिया में कांट्रेक्ट सिस्टम ख़त्म करने के लिए और वर्किंग जर्नलिस्ट्स एक्ट पर अमल सुनिश्चित कराने के लिए एक जनहित याचिका दायर की जाए. २, एक स्वतंत्र आयोई बने जो मीडिया को विज्ञापन बांटने का काम देखे. ३, मीडिया कंपनियों में किसी भी एक कंपनी के शेयरों की अधिकतम सीमा एक फ़ीसदी निर्धारित कर दी जाए.

अंत में सीजेआई के संगठन सचिव प्रणव प्रियदर्शी ने आभार ज्ञापन किया.

Tuesday 25 September 2012

Fight against attempts to curb freedom of the press: Nayar

(साथियो, जैसा की आप जानते हैं गत २४ सितम्बर को दिल्ली के गांधी पीस फाउंडेशन में कंसर्न्ड जर्नलिस्ट इनीशिएटिव की तरफ से एक करप्शन और मीडिया विषय पर एक विचारोत्तेजक चर्चा सत्र का आयोजन किया गया था. यहाँ पेश है इस कार्यक्रम के बाद जारी की गयी प्रेस रिलीज़. जल्द ही इस कार्यक्रम की विस्तृत रिपोर्ट भी post की जाएगी. - टीम सीजेआई  )

New Delhi, September 25. “Indian media needs some internal restructuring to cope with the challenges ahead,” said eminent journalist Kuldip Nayar on Monday. “Journalists should unite against any attempt to curb the freedom of the press,” he asserted.

Nayar was chairing a seminar on ‘Corruption and Media” organized by Concerned Journalists’ Initiative, a Delhi based organization.

“The government should constitute a press commission to look into different aspects concerning India media,” he said. “ To fight corruption , we need to have a transparent media and constituting a press commission would be  a long way in this direction,” said Nayar.

“There is an urgent need of imposing restrictions on monopolistic trends in the media ownership and cross media ownership should be regulated,” said Anand Pradhan, the associate director of Indian Institute of Mass Communication. He said this is necessary for democracy within media and to make it more pluralistic.

“There is a need of lobbying on media issues and journalists should regularly interact with parliamentarians to seek their support for their causes,” he suggested.
“There is a need of introspection in media to understand the problems it is facing today,” opined Arun Tripathi, former associate editor of Dainik Hindustan.

Well known social activist Shiv Mangal Siddhantkar said that corruption can't be seperated from exploitation. The exploitaion is the most serious form of corruption.

Anil Sinha, the convenor of Concerned Journalists’ Initiative,  moderated the discussion and  Pranava Priyadarshi, organizing secretary of the organization, purposed vote of thanks.


Anil Sinha.  Pranava Priyadarshi
Convenor    Organinzing Secretary



Wednesday 19 September 2012

सीजेआई का चर्चा सत्र 'करप्शन और मीडिया'

साथियो, हमें आप सबको यह बताते बेहद खुशी हो रही है कि कंसर्न्ड जर्नलिस्ट्स इनीशिएटिव (सीजेआई) और चंपा द अमिया एंड बी जी राव फाउंडेशन का कार्यक्रम 24 सितम्बर 2012 को नई दिल्ली के गाँधी पीस फाउंडेशन सभागार मे होने जा रहा है. यह एक चर्चा सत्र है जिसका विषय है, 'करप्शन और मीडिया.' कार्यक्रम की अध्यक्षता प्रसिद्ध पत्रकार और स्तंभकार श्री कुलदीप नैय्यर करेंगे. सम्मानित वक्ता हैंऑल इंडिया इंस्टिट्यूट ऑफ़ मास कम्यूनिकेशन के  असोसिएट डाइरेक्टर श्री आनंद प्रधान, सीनियर एडवोकेट और मानवाधिकार कार्यकर्ता श्री एन डी पांचोली, वरिष्ठ पत्रकार श्री अजित साही, जाने-माने राजनीतिक विश्लेषक श्री अरुण कुमार त्रिपाठी और वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता श्री शिवमंगल सिद्धांतकार. कार्यक्रम का संचालन करेंगे सीजेआई के संयोजक श्री अनिल सिन्हा.
इस कार्यक्रम में आप सब सादर आमंत्रित हैं. सभी साथी कृपया अधिक से अधिक संख्या मे शामिल होकर इस कार्यक्रम को सफल बनाएँ.
 
स्थान: गाँधी पीस फाउंडेशन, दीनदयाल उपाध्याय मार्ग, निकट आईटीओ
तारीख:  24 सितम्बर 2012
समय: शाम साढ़े पाँच बजे