Well known social activist Shiv Mangal Siddhantkar said that corruption can't be seperated from exploitation. The exploitaion is the most serious form of corruption.
Tuesday, 25 September 2012
Fight against attempts to curb freedom of the press: Nayar
Well known social activist Shiv Mangal Siddhantkar said that corruption can't be seperated from exploitation. The exploitaion is the most serious form of corruption.
Wednesday, 19 September 2012
सीजेआई का चर्चा सत्र 'करप्शन और मीडिया'
Friday, 16 December 2011
सिविल सोसाइटी के घेरे को तोड़े तो बहुत कुछ कर सकता है अन्ना का यह आंदोलन
टीम अन्ना ने देश में बदलाव का माहौल तो बना दिया है, लेकिन यह बदलाव क्या होगा, कैसा होगा और कितना होगा - जैसे सवाल अभी कायम हैं और इनके जवाब इस बात पर निर्भर करते हैं कि टीम अन्ना सिविल सोसाइटी के मौजूदा घेरे को तोडक़र आम जनता के साथ एकाकार होने में कितना कामयाब होती है। यह बात गुरुवार को नई दिल्ली के गांधी पीस फाउंडेशन सभागार में चर्चा सत्र के दौरान दिए गए वक्तव्यों से उभरी। चर्चा सत्र का आयोजन कन्संर्ड जर्नलिस्ट इनिशिएटिव (सीजेआई) ने किया था।
प्रमुख वक्ता थे प्रसिद्ध पत्रकार और मानवाधिकार कार्यकर्ता कुलदीप नैयर, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रफेसर सुबोध मालाकार, ऑल इंडिया वर्कर्स काउंसिल के राष्टीय संयोजक ओमप्रकाश, मशहूर रंगकर्मी और टीम अन्ना के अहम सदस्य अरविंद गौड़ तथा वरिष्ठ पत्रकार जितेंद कुमार।
अनिल सिन्हा
सबसे पहले सीजेआई के संयोजक अनिल सिन्हा ने विषय प्रवर्तन करते हुए कहा, अन्ना के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन को दाद देनी चाहिए कि उसने देश के मध्यम वर्ग और खाते पीते लोगों को सड़कों पर आने को मजबूर किया। यह वह वर्ग है जिसे भ्रष्टाचार से कोई दिक्कत नहीं है। मगर, अहम सवाल आज यह है कि अन्ना का आंदोलन बड़े बदलावों का वाहक बनेगा या नहीं। उन्होंने कहा, खुद को एक खास कानून की मांग तक सीमित रखते हुए यह आंदोलन बड़े बदलावों की ओर नहीं जा सकता। सिर्फ भष्टाचार नहीं बल्कि नई जीवनशैली, बेरोजगारी, गरीबी, नौकरियों में असुरक्षा बोध - ये बड़े कारण हैं जो देश में बदलाव की जरूरत को रेखांकित करते हैं। उन्होंने कहा कि अन्ना के आंदोलन को इतना समर्थन मिलने की एक बड़ी वजह है उसका अहिंसात्मक रूप। लेकिन, अन्ना खुद को गांधीवादी कहते हुए शिवाजी से पेरित बताना भी नहीं भूलते। इन दोनों महापुरुषों का व्यक्तित्व का एक-दूसरे से बिल्कुल अलग है और एक साथ दोनों का नाम लेने से आंदोलन में भम की गुंजाइश बनती है।
जितेंद्र कुमार
वरिष्ठ पत्रकार जितेंद्र कुमार ने कहा कि भ्रष्टाचार की बात होती है तो सिर्फ हम आर्थिक भ्रष्टाचार की बात करते हैं, लेकिन समाज में दूसरे तरह के करप्शन भी हैं। आप सरकारी शिक्षा और प्राइवेट शिक्षा में अंतर को देख सकते हैं। आप देख सकते हैं कि कैसे सरकारी शिक्षा संस्थानों को नष्ट किया जा रहा है। स्वास्थ्य संस्थाओं को जानबूझकर चौपट किया जा रहा है ताकि लोगों को इसके लिए प्राइवेट हॉस्पिटलों में जाना पड़े। आखिर पूरे देश में एक समान शिक्षा की बात क्यों नहीं हो रही है। एक समान स्वास्थ्य सेवाओं की बात क्यों नहीं की जा रही है।
सुबोध मालाकार
जेएनयू के प्रफेसर सुबोध मालाकार ने ने कहा कि भ्रष्टाचार की कोई नीति नहीं होती बल्कि नीतियों में भ्रष्टाचार होता है। उनका कहना था कि नीतियों पर विश्लेषण के बाद ही भ्रष्टाचार को मिटाया जा सकता है। उन्होंने अन्ना के आंदोलन के बारे में कहा कि यह लंबे संघर्ष की कहानी नहीं है। हालांकि उन्होंने कहा कि अन्ना ने भ्रष्टाचार को मुद्दा जरूर बनाया है पर कारणों पर विचार करने की जरूरत है।
भ्रष्टाचार के कारणों पर प्रकाश डालते हुए उन्होंने कहा कि 60 के दशक तक तो देश का सिस्टम ठीक चला लेकिन 70 का दशक आते-आते देश में भ्रष्टाचार जड़ पकड़ने लगा। उन्होंने कहा कि नव उदारवाद और सामाजिक संरचना, इन दो चीजों ने देश में भ्रष्टाचार को बढ़ावा दिया है।
उन्होंने कहा कि नव उदारवाद के तहत फ्री मार्केट और डीकंट्रोलाइजेशन ऑफ गवर्नमेंट की नीतियों पर जोर रहता है। उन्होंने बताया कि कैसे वर्ल्ड बैंक का 18 फीसदी धन दुनिया भर के सांसदों पर खर्च किया जाता है ताकि वे साम्राज्यवादी ताकतों के फेवर में नीतियां बना सके। उनका कहना था कि पूंजीवाद और भ्रष्टाचार में गठजोड़ है और इसको तोड़े बगैर भ्रष्टाचार को मिटाया नहीं जा सकता।
ओमप्रकाश
ऑल इंडिया वर्कर्स काउंसिल के ओम प्रकाश ने कहा अन्ना के आंदोलन को इस बात का श्रेय देना पडग़ा कि इसने हमारे लोकतंत्र से जुड़े कुछ मूल सवालों को स्पष्ट रूप से देश के सामने रख दिया
- जनता सर्वोच्च है या जनता द्वारा तैयार की गई संस्थाएं?
- व्यवस्था के संचालन में जनता को हस्तेक्षेप करने का अधिकार है या नहीं?
- संसद में होने वाली बहस का एजेंडा सडक़ पर तय हो सकता है या नहीं?
ये सारे सवाल लोकतंत्र को आगे बढ़ाने वाले और जनता की राजनीतिक निष्कियता दूर करने वाले सवाल हैं। मगर, यह आंदोलन आखिरकार लोकतंत्र को मजबूत बनाएगा या नहीं यह अभी से नहीं कहा जा सकता। उन्होंने कहा कि जनता द्वारा चुनी गई संसद जिस तरह से लगातार जनविरोधी नीतियां देश पर थोपती रही है, उससे अब जनता के बीच उसकी कोई साख नहीं रह गई है। मगर, इससे जो राजनीतिक शून्य पैदा हुआ है, उसे अन्ना के आंदोलन का नेतृत्व सिविल सोसाइटी से भरना चाहता है।
ओम प्रकाश ने कहा, यह सिविल सोसाइटी निर्वाचित संस्था नहीं है। इसे कथित आर्थिक सुधारों की जनविरोधी नीतियों से भी कोई दिक्कत नहीं है। यह अकारण नहीं है कि प्रशांत भूषण को छोड़ दें तो इस आंदोलन का कोई भी जिम्मेदार नेता आर्थिक सुधारों की नीति के खिलाफ कुछ नहीं बोलता। उन्होंने कहा कि मौजूदा राजनीतिक शून्य को सिविल सोसाइटी के बजाय जनवादी ताकतों से भरना होगा। तभी बात बनेगी।
अरविंद गौड़
टीम अन्ना के सदस्य और मशहूर रंगकर्मी अरविंद गौड़ ने कहा कि हम पर संसद की तौहीन करने का आरोप लगाया जाता है, लेकिन खुद स्थायी समिति के अध्यक्ष अभिषेक मनु सिंघवी संसद के वादे को झुठला देते हैं तो क्या वह संसद की तौहीन नहीं है? उन्होंने कहा कि कानून तो बनते हैं लेकिन लोगों में उन कानूनों के बारे में जानकारी नहीं होती। उन्होंने कहा कि टीम अन्ना का आंदोलन सिर्फ एक कानून के लिए नहीं है बल्कि जनता को जागरूक बनाने के लिए भी है। उन्होंने कहा कि इस आंदोलन ने आम आदमी को संसद के समानांतर ला खड़ा किया है।
कुलदीप नैयर
प्रसिद्ध पत्रकार कुलदीप नैयर देश में हर 30-35 साल पर परिवर्तन की लहर उठती है। पहले गांधी जी का आंदोलन हुआ। उसके 30 साल बाद देश आजाद हुआ। इसके 30 साल बाद जेपी का आंदोलन हुआ और अब अन्ना का आंदोलन। लेकिन इन आंदोलन के बाद भी कोई फर्क नहीं पड़ा। इसका कारण है कि व्यवस्था में परिवर्तन तो हो जाएगा, पर लोगों में परिवर्तन नहीं हो पाता है। जरूरत है कि लोगों के अंदर परिवर्तन करने की और उन्हें ईमानदार बनाने की। लोगों को उसूलों के प्रति जागरूक बनाने की। उन्होंने कहा कि मुनष्य के अंदर परिवर्तन जरूरी है।
उन्होंने कहा कि लोकपाल बन भी जाए तो उसके साथ हजारो कर्मचारी जोडऩे पड़ेंगे। वे सब तो इसी समाज से जाएंगे। उनके ठीक रहने की गारंटी कैसे ली जा सकेगी? उन्होंने यह भी कहा कि जब जन लोकपाल बिल पर चर्चा हो रही थी तब एक बैठक में मैं भी था। मैंने कहा कि इसमें पाइवेट कंपनियों को क्यों नहीं रखा गया है? लेकिन पाइवेट कंपनियां आज भी इसमें नहीं हैं। जबकि पाइवेट कंपनियों के भष्टाचार पर कश लगाना बेहद जरूरी है। उन्होंने कहा कि आम को अधिक से अधिक शिक्षित करना, उसे जागरूक बनाना जितना जरूरी है, उतना ही जरूरी है उसे ताकत देना। संस्थाओं को या तंत्र को ताकत देने से बात नहीं बनेगी। हमें आम आदमी के हाथों में ताकत देने का कोई रास्ता खोजना होगा।
श्रोता
कार्यकम के आखिर में कुछ श्रोताओं ने जोरदार तरीके से अपनी बात रखकर कार्यकम को और विचारोत्तेजक बना दिया। बदरे आलम ने कहा कि मैं गांव का एक सामान्य किसान मुस्लिम के तौर पर भी अन्ना के आंदोलन को पूर्ण समर्थन देने को तैयार हूं। लेकिन, मेरे लिए अन्ना के आंदोलन में क्या है? न तो आप खेती को सस्ता करते करते हैं और न उपज का पर्याप्त मूल्य दिलाते हैं। अन्ना इस पर एक शब्द नहीं बोल रहे।
एक अन्य श्रोता भुवेंद्र रावत ने लोकपाल कानून बनने के बाद के हालात पर रोशनी डालते हुए कहा, दूर दराज के गांवों से रोजगार की तलाश में लोग दिल्ली आते हैं। उन्हें रहने को कहीं घर नहीं मिलता। दिल्ली में वैध घर हासिल करना सबके बूते की बात नहीं होती। आजकल ऐसे लोग एमसीडी कर्मचारियों को कुछ सौ या हजार रुपए देकर अवैध झोपड़ों में रहने का जुगाड़ कर लेते हैं। लेकिन, लोकपाल कानून बनने के बाद ऐसे एमसीडी कर्मचारियों को जेल हो जाएगी। नतीजतन जेल जाने के डर से ये कर्मचारी उन झोपड़ों को तोड़ देंगे। दिल्ली तो शायद साफ-सुथरी रहेगी, लेकिन उन बेघरों की जिंदगी कैसी होगी जरा इसकी कल्पना कीजिए।
उन्होंने कहा, गांवों के ऐसे सामान्य लोग जो दिल्ली आते हैं तो उनके पास न तो पूंजी होती है और न ही वे ज्यादा पढ़े-लिखे होते हैं। जब उन्हें कोई काम नहीं मिलता तो कहीं सडक़ के किनारे रेहड़ी लगाना शुरू कर देते हैं। पुलिस, एमसीडी वगैरह के लोगों को हफ्ता देकर भी उनका गुजारा चलने लायक आमदनी हो जाती है। लेकिन, लोकपाल कानून बनने के बाद मॉल वाला इनकी शिकायत करेगा और जेल जाने के डर से एमसीडी वाले इसकी रेहड़ी उजाड़ देंगे। यह कहां जाएगा इसकी चिंता वे लोग नहीं कर रहे जो लोकपाल बिल लाने की लड़ाई में एड़ी-चोटी का जोर लगाए हुए हैं।
Monday, 12 December 2011
सीजेआई का चर्चा सत्र, ज़रूर शामिल हों
साथियो, हमें आप सबको यह बताते बेहद खुशी हो रही है कि कंसर्न्ड जर्नलिस्ट्स इनीशिएटिव (सीजेआई) का पहला कार्यक्रम 15 दिसंबर 2011 को नई दिल्ली के गाँधी पीस फाऊंडेसन सभागार मे होने जा रहा है. यह एक चर्चा सत्र है जिसका विषय है, 'भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन: मौजूदा परिदृश्य.'
कार्यक्रम की अध्यक्षता प्रसिद्ध पत्रकार और स्तंभकार श्री कुलदीप नैय्यर करेंगे. सम्मानित वक्ता हैं, जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर सुबोध मालाकार, ऑल इंडिया वर्कर्स काउन्सिल के श्री ओमप्रकाश, मशहूर रंगकर्मी और टीम अन्ना के अहम सदस्य श्री अरविंद गौड़ तथा वरिष्ठ पत्रकार श्री जितेंद्र कुमार. कार्यक्रम का संचालन करेंगे सीजेआई के संयोजक श्री अनिल सिन्हा.
इस कार्यक्रम में आप सब सादर आमंत्रित हैं. सभी साथी कृपया अधिक से अधिक संख्या मे शामिल होकर इस कार्यक्रम को सफल बनाएँ.
स्थान: गाँधी पीस फाउंडेशन, दीनदयाल उपाध्याय मार्ग, निकट आईटीओ
तारीख: 15 दिसंबर (गुरुवार), 2011
समय: शाम साढ़े पाँच बजे
Monday, 14 November 2011
मीडिया की नादानी और काटज़ू का डंडा
जस्टिस मार्कंडेय काटजू ने जब से मीडियाकर्मियों की कमियां गिनाई हैं, देश में उनके प्रशंसकों की बाढ़ आ गई है। अचानक वह उन सब लोगों के हीरे बन गए हैं जो मीडिया का सबसे ज्यादा इस्तेमाल करते हैं और इसलिए इससे सबसे ज्यादा ऊबे हुए भी हैं। टीवी न्यूज ज्यादा देखने वाले लोग, अखबार ज्यादा पढ़ने वाले लोग ही मीडिया के सबसे बड़े आलोचक हैं। जाहिर है, जो चैनल बदल-बदल कर खबरें देखते हैं और जो एक से ज्यादा अखबार पढ़ते हैं, उन्हें ही इस बात का ज्यादा पता होता है कि किस अखबार या चैनल ने खबर को किस अंदाज में पेश किया। इस आधार पर वे इस बारे में भी राय बनाने की स्थिति में होते हैं कि खास अंदाज में खबरें पेश करने के पीछे खास चैनल या अखबार का क्या हित हो सकता है। जाहिर है, ऐसे पाठक-दर्शक ही मीडिया के बारे में सही या गलत या आधा सही-आधा गलत जैसी भी कहें, राय रखते हैं।
दूसरे शब्दों में कहें तो यह साफ है कि मीडिया का जो सबसे बड़ा आलोचक वर्ग है, उसे ही मीडिया का सबसे ज्यादा फायदा भी हो रहा है। आखिर, राजनीति, सरकार, प्रशासन, व्यापार, खेल, सिनेमा, करप्शन, आंदोलन - इन सबसे जुड़ी हकीकत लोगों तक पहुंच तो रही है। यहां तक कि खबरें पहुंचाने वालों की हकीकत भी पहुंच रही है (तभी तो वे मीडिया का नाम सुनते ही भड़क जाते हैं)।
जस्टिस काटजू चाहे न मानें, उनके नए बने फैन भी न स्वीकार करें, पर यह भारतीय मीडिया की नाकामी नहीं बल्कि उसकी कामयाबी का सबूत है। कुछ कार्यों की प्रकृति ही ऐसी होती है कि करने वाले को तारीफ मुश्किल से मिलती है। और, निंदा तो जैसे उनका इंतजार ही कर रही होती है। हमारे शहर के सफाईकर्मी कुछ काम भी करते हैं, इसका अंदाजा हमें उसी दिन मिलता है जब वे हड़ताल पर जाते हैं। कुछ ऐसा ही हाल मीडियाकर्मियों का भी है। हमें उनकी अहमियत तब पता चलती है जब हम उनकी सेवाओं से दूर हो जाते हैं।
एक राष्ट के रूप में हमने आपातकाल के दौरान सेंसरशिप का स्वाद चखा था और ऐसा सबक सीखा कि अब कोई सेंसरशिप की बात भी नहीं करता। मगर, इस बीच एक ऐसी पीढ़ी आई है जिसने आपातकाल के बारे में थोड़ा-बहुत सुना भर है। 24 घंटे के न्यूज चैनलों के अलावा फेसबुक और ट्विटर तक -उसके सामने मीडिया के नए-नए रूप तो हैं, अभिव्यक्ति की असीम लगने वाली आजादी भी है, उसके दुष्प्रभाव भी है, मगर इन सबका अभाव कैसा होता है या कैसा हो सकता है, इसका कोई अनुभव उसके सामने नहीं है। न ही, इसकी कोई संभावना उसे दिख रही है। लिहाजा, वह मीडिया की खामियों से त्रस्त है और हर हाल में बस उसी से निजात पाना चाहती है। जस्टिस काटजू की बातें उसे मरहम प्रतीत होती हैं।
मगर, यह याद रखना जरूरी है कि जैसे हर चमकती हुई चीज सोना नहीं होती, वैसे ही हर कड़वी बात सौ फीसदी खरी नहीं होती। जस्टिस काटजू कभी सुपीम कोर्ट के जज थे, आज वह प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया के चेयरमैन हैं। जिस शख्स को मीडिया का फ्रेंड, फिलॉसफर ऐंड गाइड बनना है, वह मीडिया को डंडे से हांकना चाहता है। जस्टिस काटजू बाकायदा एलान कर चुके हैं कि डंडा तो उन्हें चाहिए, वह उसे अपने पास रखना चाहते हैं। दयापूर्वक वह कहते हैं कि इसका इस्तेमाल वह पांच फीसदी के खिलाफ ही करेंगे।
और क्यों भला? इसलिए क्योंकि बकौल जस्टिस काटजू मीडियाकर्मी पढ़े-लिखे नहीं हैं। उन्हें न दर्शन का ज्ञान है, न साहित्य का, न राजनीतिक विचारधाराओं का। उनके मुताबिक मीडिया को मुद्दे भी नहीं पता। वह देश की गंभीर समस्याओं पर बात करने के बदले चमक-दमक और सिलेब्रिटीज के नाज-नखरों की बातें ज्यादा करता है।
ज्यादा समय नहीं हुए जब इसी मीडिया ने नाज-नखरों की चिंता छोड़ करप्शन विरोधी आंदोलन को अपना पूरा समय अर्पित कर दिया था। तब सरकार की भी नींद हराम हो गई थी। बहरहाल, जस्टिस काटजू की आलोचना में छिपी सचाई से इनकार नहीं किया जा सकता। इसमें दो राय नहीं कि मीडिया को अपनी कमियां दूर करनी होंगी। लेकिन, इसमें भी कोई संदेह नहीं कि यह काम जस्टिस काटजू के डंडे के जरिए नहीं हो सकता। अगर मीडिया को डंडे से ठीक करने की कोशिश की गई और मीडिया ने इसे स्वीकार कर लिया तो फिर वह मीडिया रह ही नहीं जाएगा जो अपनी तमाम कमजोरियों के बावजूद आज भी मौजूदा लोकतांत्रिक ढांचे की रीढ़ बना हुआ है।
दूसरी बात यह कि आखिर जस्टिस काटजू को किस लिहाज से मीडिया से ऊपर माना जाए? वह मीडिया पर अज्ञानता का आरोप लगाते हैं, लेकिन उनके उस ज्ञान पर ही कैसे भरोसा किया जाए जिसने उन्हें उस विनम्रता तक से वंचित कर दिया जो ज्ञान की पहली विशेषता मानी गई है? मीडियाकर्मी तो मान लिया अज्ञानी हैं, पर ज्ञानी जजों का ही व्यवहार कितना आदर्श रहा है यह बात सुप्रीम कोर्ट की ही एक रिटायर्ड जज (जस्टिस रूमा पाल) हमेंपिछले सप्ताह (तारकुंडे मेमोरियल लेक्चर में) बता चुकी हैं।
सौ बात की एक बात यह है कि जैसे जूडिशरी की गड़बड़ियों का इलाज यह नहीं है कि उसे सरकार के अधीन कर दिया जाए वैसे ही मीडिया की गड़बडि़यों का इलाज यह नहीं है कि उसे किसी जस्टिस काटजू के डंडे से हंकने के लिए मजबूर किया जाए, भले वह जस्टिस काटजू प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया का अध्यक्ष ही क्यों न हो। हां, यह सवाल जरूर है कि मीडिया की अंतर्निहित विशेषताओं से इस कदर अनजान और प्रेस की गरिमा के प्रति इस हद तक संवेदनहीन किसी शख्स को प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया के अध्यक्ष जैसे पद पर बने रहना चाहिए या नहीं। भले वह शख्स जस्टिस काटजू जैसा ज्ञानी ही क्यों न हो।
(नवभारत टाइम्स क्स ब्लॉग अंधेर नगरी से साभार )
Sunday, 12 December 2010
एक तो चोरी, फिर सीनाजोरी
विनोद गुप्ता
(यह प्रतिक्रिया हमें ईमेल से मिली। विनोद गुप्ता जी ने पूरा परिचय देना ठीक नहीं समझा। इतना जरूर बताया है कि वह भी पत्रकार हैं और इस पेशे की अहमियत उन्हें पता है। लिहाजा वह पत्रकारों के सुधरने की जरूरत पूरी शिद्दत से महसूस करते हैं।)
राडिया कांड में कुछ सिलेब्रेटी टाइप के पत्रकारों का नाम आना पत्रकारिता के लिए शर्मनाक तो है ही, पर इससे भी शर्मनाक है इस मामले में उन पत्रकारों की सीनाजोरी। टेप में साफ-साफ नाम आने के बाद जिस तरह की बेशर्मी ये तथाकथित बड़े पत्रकार दिखा रहे हैं, उससे नेता भी शर्मा जाएं। 2जी मामले में काफी हील - हुज्जत के बाद टेलिकॉम मिनिस्टर राजा को इस्तीफा देना पड़ा, पर इन पत्रकारों को देखिए ये उसी तरह से सीना तानकर चल रहे हैं और अपना शो पेश कर रहे हैं। हालांकि पत्रकारिता के 'वीर' ने कुछ दिनों का ब्रेक जरूर लिया है, पर वह नाकाफी है।
आखिर ऐसा क्यों है कि हर वक्त नैतिकता के नाम पर नेताओं की बखिया उधेड़ेने वाले पत्रकार अपनी बारी आने पर सीनाजोरी करने लगे? बरखा दत्त ने एनडीटीवी पर पत्रकरों का पैनल बुलाकर अपनी सफाई दी, पर वह इस सफाई में अपने को पाक-साफ साबित नहीं कर पाईं। बड़े-बड़े नेताओं की बोलती बंद करनेवालीं बरखा की जुबान कई सवालों के जवाब में लड़ख़ड़ाती दिखी। कुछ इसी तरह का स्टैंड प्रभु चावला का भी ने भी लिया। मुझे लगता है कि इन पत्रकारों ने कुछ नया नहीं किया है। और इसमें कुछ आश्चर्य करनेवाला भी नहीं लगा क्योंकि मुझे पहले से ही लगता था कि इस तरह के लोग 'दलाल' के सिवा कुछ नहीं हैं।
मुझे पत्रकारिता के इस दलालीकरण का आभास पहले से था, पर अब यह सबके सामने आ गया है। मुझे लगता है कि सूत्र से खबर निकलवाने के लिए इस तरह की बातचीत करना और उसके आदेश पर कॉलम लिखना कहीं से भी पत्रकारिता के नियमों के अनुकुल नहीं है। तब तो राजा को दोषी भी नहीं ठहराया जाना चाहिए क्योंकि उन्होंने जो भी किया वह अपनी पार्टी की भलाई के लिए किया। दरअसल, पत्रकारिता में कुछ लोगों को छोड़ दें, तो यह प्रफेशन पूरी तरह से दलालों, अपराधियों और भ्रष्ट लोगों की गिरफ्त में है।
निचले स्तर पर काफी भ्रष्टाचार है। वहां पर तो खबरें बिना पैसे लिए लिखी ही नहीं जातीं। छोटी - छोटी जगहों पर तो पत्रकार (स्ट्रींगर) पुलिस के साथ सांठगांठ करके लोगों से पैसा ऐंठते हैं और उनका मामला सेट कराते हैं। कुछ तो अपनी कलम का डर दिखाकर व्यापारियों से चंदा लेते हैं। इसी तरह ऊपरी स्तर पर तथाकथित बड़े पत्रकार दलाली करते हैं और खूब पैसा बना रहे हैं। पैसे लेकर न्यूज लिखना तो अब छोटी - छोटी जगहों की बात नहीं रही, अब तो यह नैशनल मुद्दा बन गया है, जिसे अब पेड न्यूज कह रहे हैं। चुनावों के समय तो बजाप्ता स्थानीय एडिटर और ब्यूरो चीफ को टारगेट दिया जाता है कि इस बार फलां पार्टी से और फलां कैंडिडेट से इतनी रकम वसूलनी है।
आपको मैं बता दूं गांवों में कुछ अपराधी किस्म के लोग पुलिस से बचने और अपना प्रभाव दिखाने के लिए पत्रकार बन जाते हैं। जिस प्रफेशन में इतना भ्रष्टाचार हो और ऐसे लोग हों, उससे तो यही उम्मीद की जा सकती थी। बिल्कुल वैसा ही इन पत्रकारों ने किया भी। हालांकि मेरा यह मानना है कि सारे पत्रकार एक जैसे नहीं होते, आज भी कुछ लोग ईमानदारी के साथ पत्रकारिता कर रहे हैं। लेकिन मेरा मानना है कि पत्रकारों का इस तरह का आचरण कहीं से भी ठीक नहीं है। पत्रकारों को भी सुधरने की जरूरत है।
Wednesday, 8 December 2010
'हां-हूं' का मतलब 'हां में हां' नहीं होता
(अभिषेक नवभारत टाइम्स डॉट कॉम से जुड़े युवा पत्रकार हैं। इस पोस्ट में उन्होंने नीरा राडिया प्रकरण के सहारे पत्रकारों की मजबूरियों से जुड़ा पहलू सामने रखा है और आखिरी पैमाना पत्रकारों के अंतःकरण को माना है। पर सवाल यह है कि क्या पत्रकार यह कह कर बच सकते हैं कि जो कुछ मैंने किया वह मेरी नजर में ठीक है? फिर बतौर पत्रकार पाठकों के आगे उनकी जिम्मेदारी का क्या होगा? बहरहाल, बहस को आगे बढ़ाते हुए पेश है अभिषेक की यह पोस्ट। )
2जी स्पेक्ट्रम घोटाले ने जहां एक ओर ए.राजा और नीरा राडिया को घसीटा है, तो वहीं दूसरी ओर मीडिया की कुछ नामचीन हस्तियां भी इसके लपेटे में दिख रही हैं। पहले यह स्पष्ट कर दूं मैं यहां किसी मीडियापर्सन को डिफेंड नहीं कर रहा हूं। मेरा भी स्पष्ट मानना है कि अगर कोई पत्रकार 2जी मामले में किसी तरह लिप्त है तो उसे सज़ा मिलनी ही चाहिए। मगर किसी पत्रकार द्वारा किसी और व्यक्ति से बातचीत में उसकी हां में हां मिलाने पर उसे सांठगांठ का दोषी ठहराना मुझे ज्यादती लगता है। खासकर इसलिए कि मैं खुद भी पत्रकार हूं और मैंने खुद कई बार ऐसी स्थितियां फेस की हैं - जब मैं खुद किसी राजनीतिज्ञ से बात करता हूं तो बातचीत जारी रखने के लिए कई बार हमें उनकी हर सही और कभी-कभी (मेरी नज़र में) गलत बात पर भी हामी भरनी पड़ती है।
खबर निकालने के लिए जरूरी है आपकी संबंधित पक्षों से गपशप हो और गपशप में जो कुछ बात हो रही है, जरूरी नहीं है कि आप उससे सहमत हो, पर गपशप बनाए रखने के लिए आप ऐसी बातों पर भी हां-हां-हुं-हुं करते रहते हैं क्योंकि उनसे बहस करके आप बात को तोड़ना या किसी और दिशा में मोड़ना नहीं चाहते। उदाहरण के लिए अगर मैं गिलानी से बात करूं और वह कहें कि भारत सरकार कश्मीरियों से अन्याय कर रही है और मैं उनसे बात निकलवाने के लिए हां-हां-हुं-हुं करूं तो इसका यह मतलब नहीं हुआ कि मैं उनकी बात से सहमत हूं। इसी तरह कई कई बार ऐसा भी होता है कि जो सोर्स आपको लगातार खबर दे रहा है, वह आपसे उस खबर में कुछ शब्द अपने लिए भी डलवाना चाहता है। यहां पर पत्रकार विवेकानुसार काम करता है। अगर वे चंद शब्द ऐसे हैं जिनसे किसी और का डायरेक्ट या इनडायरेक्ट फायदा या नुकसान नहीं होता, तो उसे जाने भी देता है। ऐसा करना इसलिए भी जरूरी होता है ताकि भविष्य में वह सोर्स आपके फिर काम आता रहे। फिर दोहरा रहा हूं कि मैं यह नहीं कह रहा कि मीडिया सौ प्रतिशत पाक-साफ है, लेकिन किसी भी जजमेंट पर पहुंचने से पहले सिक्के के दोनों पहलुओं की जांच जरूरी है। लेकिन साथ ही मेरा मानना है कि हर 'वीर' पत्रकार को (वीर इसलिए लिख रहा हूं कि पत्रकारों के लिए काजल की कोठरी से बेदाग निकलना किसी वीरता भरे काम से कम नहीं है) बिना किसी डर से अपना काम जारी रखना चाहिए। हमेशा याद रखिए कि यदि आपकी आत्मा आपको सही होने का सर्टिफिकेट देती है तो फिर दुनिया के सर्टिफिकेट की चिंता मत कीजिए क्योंकि कुछ तो लोग कहेंगे, लोगों का काम है कहना...।
हां, लेकिन राडिया कांड हमें यह सीख जरूर देता है कि अपने सोर्स के बात करते हुए हमें अधिक से अधिक सावधानी बरतनी चाहिए। बाकी द्वारिकाप्रसाद माहेश्वरी जी की लिखी यह कविता फॉलो करते रहें-वीर तुम बढ़े चलो
धीर तुम बढ़े चलो
सामने पहाड़ हो
सिंह की दहाड़ हो
तुम निडर, हटो नहीं
तुम निडर, डटो वहीं
वीर तुम बढ़े चलो
धीर तुम बढ़े चलो
प्रात हो कि रात हो
संग हो न साथ हो
सूर्य से बढ़े चलो
चंद्र से बढ़े चलो
वीर तुम बढ़े चलो
धीर तुम बढ़े चलो
(नवभारत टाइम्स के ब्लॉग 'रू-ब-रू जिंदगी' से साभार)