Monday, 12 December 2011

सीजेआई का चर्चा सत्र, ज़रूर शामिल हों

साथियो, हमें आप सबको यह बताते बेहद खुशी हो रही है कि कंसर्न्ड जर्नलिस्ट्स इनीशिएटिव (सीजेआई) का पहला कार्यक्रम 15 दिसंबर 2011 को नई दिल्ली के गाँधी पीस फाऊंडेसन सभागार मे होने जा रहा है. यह एक चर्चा सत्र है जिसका विषय है, 'भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन: मौजूदा परिदृश्य.'

कार्यक्रम की अध्यक्षता प्रसिद्ध पत्रकार और स्तंभकार श्री कुलदीप नैय्यर करेंगे. सम्मानित वक्ता हैं, जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर सुबोध मालाका, ऑल इंडिया वर्कर्स काउन्सिल के श्री ओमप्रकाश, मशहूर रंगकर्मी और टीम अन्ना के अहम सदस्य श्री अरविंद गौड़ तथा वरिष्ठ पत्रकार श्री जितेंद्र कुमार. कार्यक्रम का संचालन करेंगे सीजेआई के संयोजक श्री अनिल सिन्हा.

इस कार्यक्रम में आप सब सादर आमंत्रित हैं. सभी साथी कृपया अधिक से अधिक संख्या मे शामिल होकर इस कार्यक्रम को सफल बनाएँ.

स्थान: गाँधी पीस फाउंडेशन, दीनदयाल उपाध्याय मार्ग, निकट आईटीओ

तारीख: 15 दिसंबर (गुरुवार), 2011

समय: शाम साढ़े पाँच बजे

Monday, 14 November 2011

मीडिया की नादानी और काटज़ू का डंडा

प्रणव प्रियदर्शी

जस्टिस मार्कंडेय काटजू ने जब से मीडियाकर्मियों की कमियां गिनाई हैं, देश में उनके प्रशंसकों की बाढ़ आ गई है। अचानक वह उन सब लोगों के हीरे बन गए हैं जो मीडिया का सबसे ज्यादा इस्तेमाल करते हैं और इसलिए इससे सबसे ज्यादा ऊबे हुए भी हैं। टीवी न्यूज ज्यादा देखने वाले लोग, अखबार ज्यादा पढ़ने वाले लोग ही मीडिया के सबसे बड़े आलोचक हैं। जाहिर है, जो चैनल बदल-बदल कर खबरें देखते हैं और जो एक से ज्यादा अखबार पढ़ते हैं, उन्हें ही इस बात का ज्यादा पता होता है कि किस अखबार या चैनल ने खबर को किस अंदाज में पेश किया। इस आधार पर वे इस बारे में भी राय बनाने की स्थिति में होते हैं कि खास अंदाज में खबरें पेश करने के पीछे खास चैनल या अखबार का क्या हित हो सकता है। जाहिर है, ऐसे पाठक-दर्शक ही मीडिया के बारे में सही या गलत या आधा सही-आधा गलत जैसी भी कहें, राय रखते हैं।


दूसरे शब्दों में कहें तो यह साफ है कि मीडिया का जो सबसे बड़ा आलोचक वर्ग है, उसे ही मीडिया का सबसे ज्यादा फायदा भी हो रहा है। आखिर, राजनीति, सरकार, प्रशासन, व्यापार, खेल, सिनेमा, करप्शन, आंदोलन - इन सबसे जुड़ी हकीकत लोगों तक पहुंच तो रही है। यहां तक कि खबरें पहुंचाने वालों की हकीकत भी पहुंच रही है (तभी तो वे मीडिया का नाम सुनते ही भड़क जाते हैं)।


जस्टिस काटजू चाहे न मानें, उनके नए बने फैन भी न स्वीकार करें, पर यह भारतीय मीडिया की नाकामी नहीं बल्कि उसकी कामयाबी का सबूत है। कुछ कार्यों की प्रकृति ही ऐसी होती है कि करने वाले को तारीफ मुश्किल से मिलती है। और, निंदा तो जैसे उनका इंतजार ही कर रही होती है। हमारे शहर के सफाईकर्मी कुछ काम भी करते हैं, इसका अंदाजा हमें उसी दिन मिलता है जब वे हड़ताल पर जाते हैं। कुछ ऐसा ही हाल मीडियाकर्मियों का भी है। हमें उनकी अहमियत तब पता चलती है जब हम उनकी सेवाओं से दूर हो जाते हैं।


एक राष्ट के रूप में हमने आपातकाल के दौरान सेंसरशिप का स्वाद चखा था और ऐसा सबक सीखा कि अब कोई सेंसरशिप की बात भी नहीं करता। मगर, इस बीच एक ऐसी पीढ़ी आई है जिसने आपातकाल के बारे में थोड़ा-बहुत सुना भर है। 24 घंटे के न्यूज चैनलों के अलावा फेसबुक और ट्विटर तक -उसके सामने मीडिया के नए-नए रूप तो हैं, अभिव्यक्ति की असीम लगने वाली आजादी भी है, उसके दुष्प्रभाव भी है, मगर इन सबका अभाव कैसा होता है या कैसा हो सकता है, इसका कोई अनुभव उसके सामने नहीं है। न ही, इसकी कोई संभावना उसे दिख रही है। लिहाजा, वह मीडिया की खामियों से त्रस्त है और हर हाल में बस उसी से निजात पाना चाहती है। जस्टिस काटजू की बातें उसे मरहम प्रतीत होती हैं।


मगर, यह याद रखना जरूरी है कि जैसे हर चमकती हुई चीज सोना नहीं होती, वैसे ही हर कड़वी बात सौ फीसदी खरी नहीं होती। जस्टिस काटजू कभी सुपीम कोर्ट के जज थे, आज वह प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया के चेयरमैन हैं। जिस शख्स को मीडिया का फ्रेंड, फिलॉसफर ऐंड गाइड बनना है, वह मीडिया को डंडे से हांकना चाहता है। जस्टिस काटजू बाकायदा एलान कर चुके हैं कि डंडा तो उन्हें चाहिए, वह उसे अपने पास रखना चाहते हैं। दयापूर्वक वह कहते हैं कि इसका इस्तेमाल वह पांच फीसदी के खिलाफ ही करेंगे।


और क्यों भला? इसलिए क्योंकि बकौल जस्टिस काटजू मीडियाकर्मी पढ़े-लिखे नहीं हैं। उन्हें न दर्शन का ज्ञान है, न साहित्य का, न राजनीतिक विचारधाराओं का। उनके मुताबिक मीडिया को मुद्दे भी नहीं पता। वह देश की गंभीर समस्याओं पर बात करने के बदले चमक-दमक और सिलेब्रिटीज के नाज-नखरों की बातें ज्यादा करता है।


ज्यादा समय नहीं हुए जब इसी मीडिया ने नाज-नखरों की चिंता छोड़ करप्शन विरोधी आंदोलन को अपना पूरा समय अर्पित कर दिया था। तब सरकार की भी नींद हराम हो गई थी। बहरहाल, जस्टिस काटजू की आलोचना में छिपी सचाई से इनकार नहीं किया जा सकता। इसमें दो राय नहीं कि मीडिया को अपनी कमियां दूर करनी होंगी। लेकिन, इसमें भी कोई संदेह नहीं कि यह काम जस्टिस काटजू के डंडे के जरिए नहीं हो सकता। अगर मीडिया को डंडे से ठीक करने की कोशिश की गई और मीडिया ने इसे स्वीकार कर लिया तो फिर वह मीडिया रह ही नहीं जाएगा जो अपनी तमाम कमजोरियों के बावजूद आज भी मौजूदा लोकतांत्रिक ढांचे की रीढ़ बना हुआ है।


दूसरी बात यह कि आखिर जस्टिस काटजू को किस लिहाज से मीडिया से ऊपर माना जाए? वह मीडिया पर अज्ञानता का आरोप लगाते हैं, लेकिन उनके उस ज्ञान पर ही कैसे भरोसा किया जाए जिसने उन्हें उस विनम्रता तक से वंचित कर दिया जो ज्ञान की पहली विशेषता मानी गई है? मीडियाकर्मी तो मान लिया अज्ञानी हैं, पर ज्ञानी जजों का ही व्यवहार कितना आदर्श रहा है यह बात सुप्रीम कोर्ट की ही एक रिटायर्ड जज (जस्टिस रूमा पाल) हमेंपिछले सप्ताह (तारकुंडे मेमोरियल लेक्चर में) बता चुकी हैं।


सौ बात की एक बात यह है कि जैसे जूडिशरी की गड़बड़ियों का इलाज यह नहीं है कि उसे सरकार के अधीन कर दिया जाए वैसे ही मीडिया की गड़बडि़यों का इलाज यह नहीं है कि उसे किसी जस्टिस काटजू के डंडे से हंकने के लिए मजबूर किया जाए, भले वह जस्टिस काटजू प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया का अध्यक्ष ही क्यों न हो। हां, यह सवाल जरूर है कि मीडिया की अंतर्निहित विशेषताओं से इस कदर अनजान और प्रेस की गरिमा के प्रति इस हद तक संवेदनहीन किसी शख्स को प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया के अध्यक्ष जैसे पद पर बने रहना चाहिए या नहीं भले वह शख्स जस्टिस काटजू जैसा ज्ञानी ही क्यों न हो
(नवभारत टाइम्‍स क्स ब्लॉग अंधेर नगरी से साभार )


Sunday, 12 December 2010

एक तो चोरी, फिर सीनाजोरी


विनोद गुप्ता
(यह प्रतिक्रिया हमें ईमेल से मिली। विनोद गुप्ता जी ने पूरा परिचय देना ठीक नहीं समझा। इतना जरूर बताया है कि वह भी पत्रकार हैं और इस पेशे की अहमियत उन्हें पता है। लिहाजा वह पत्रकारों के सुधरने की जरूरत पूरी शिद्दत से महसूस करते हैं।)

राडिया कांड में कुछ सिलेब्रेटी टाइप के पत्रकारों का नाम आना पत्रकारिता के लिए शर्मनाक तो है ही, पर इससे भी शर्मनाक है इस मामले में उन पत्रकारों की सीनाजोरी। टेप में साफ-साफ नाम आने के बाद जिस तरह की बेशर्मी ये तथाकथित बड़े पत्रकार दिखा रहे हैं, उससे नेता भी शर्मा जाएं। 2जी मामले में काफी हील - हुज्जत के बाद टेलिकॉम मिनिस्टर राजा को इस्तीफा देना पड़ा, पर इन पत्रकारों को देखिए ये उसी तरह से सीना तानकर चल रहे हैं और अपना शो पेश कर रहे हैं। हालांकि पत्रकारिता के 'वीर' ने कुछ दिनों का ब्रेक जरूर लिया है, पर वह नाकाफी है।

आखिर ऐसा क्यों है कि हर वक्त नैतिकता के नाम पर नेताओं की बखिया उधेड़ेने वाले पत्रकार अपनी बारी आने पर सीनाजोरी करने लगे? बरखा दत्त ने एनडीटीवी पर पत्रकरों का पैनल बुलाकर अपनी सफाई दी, पर वह इस सफाई में अपने को पाक-साफ साबित नहीं कर पाईं। बड़े-बड़े नेताओं की बोलती बंद करनेवालीं बरखा की जुबान कई सवालों के जवाब में लड़ख़ड़ाती दिखी। कुछ इसी तरह का स्टैंड प्रभु चावला का भी ने भी लिया। मुझे लगता है कि इन पत्रकारों ने कुछ नया नहीं किया है। और इसमें कुछ आश्चर्य करनेवाला भी नहीं लगा क्योंकि मुझे पहले से ही लगता था कि इस तरह के लोग 'दलाल' के सिवा कुछ नहीं हैं।

मुझे पत्रकारिता के इस दलालीकरण का आभास पहले से था, पर अब यह सबके सामने आ गया है। मुझे लगता है कि सूत्र से खबर निकलवाने के लिए इस तरह की बातचीत करना और उसके आदेश पर कॉलम लिखना कहीं से भी पत्रकारिता के नियमों के अनुकुल नहीं है। तब तो राजा को दोषी भी नहीं ठहराया जाना चाहिए क्योंकि उन्होंने जो भी किया वह अपनी पार्टी की भलाई के लिए किया। दरअसल, पत्रकारिता में कुछ लोगों को छोड़ दें, तो यह प्रफेशन पूरी तरह से दलालों, अपराधियों और भ्रष्ट लोगों की गिरफ्त में है।

निचले स्तर पर काफी भ्रष्टाचार है। वहां पर तो खबरें बिना पैसे लिए लिखी ही नहीं जातीं। छोटी - छोटी जगहों पर तो पत्रकार (स्ट्रींगर) पुलिस के साथ सांठगांठ करके लोगों से पैसा ऐंठते हैं और उनका मामला सेट कराते हैं। कुछ तो अपनी कलम का डर दिखाकर व्यापारियों से चंदा लेते हैं। इसी तरह ऊपरी स्तर पर तथाकथित बड़े पत्रकार दलाली करते हैं और खूब पैसा बना रहे हैं। पैसे लेकर न्यूज लिखना तो अब छोटी - छोटी जगहों की बात नहीं रही, अब तो यह नैशनल मुद्दा बन गया है, जिसे अब पेड न्यूज कह रहे हैं। चुनावों के समय तो बजाप्ता स्थानीय एडिटर और ब्यूरो चीफ को टारगेट दिया जाता है कि इस बार फलां पार्टी से और फलां कैंडिडेट से इतनी रकम वसूलनी है।

आपको मैं बता दूं गांवों में कुछ अपराधी किस्म के लोग पुलिस से बचने और अपना प्रभाव दिखाने के लिए पत्रकार बन जाते हैं। जिस प्रफेशन में इतना भ्रष्टाचार हो और ऐसे लोग हों, उससे तो यही उम्मीद की जा सकती थी। बिल्कुल वैसा ही इन पत्रकारों ने किया भी। हालांकि मेरा यह मानना है कि सारे पत्रकार एक जैसे नहीं होते, आज भी कुछ लोग ईमानदारी के साथ पत्रकारिता कर रहे हैं। लेकिन मेरा मानना है कि पत्रकारों का इस तरह का आचरण कहीं से भी ठीक नहीं है। पत्रकारों को भी सुधरने की जरूरत है।

Wednesday, 8 December 2010

'हां-हूं' का मतलब 'हां में हां' नहीं होता

अभिषेक महरोत्रा
(अभिषेक नवभारत टाइम्स डॉट कॉम से जुड़े युवा पत्रकार हैं। इस पोस्ट में उन्होंने नीरा राडिया प्रकरण के सहारे पत्रकारों की मजबूरियों से जुड़ा पहलू सामने रखा है और आखिरी पैमाना पत्रकारों के अंतःकरण को माना है। पर सवाल यह है कि क्या पत्रकार यह कह कर बच सकते हैं कि जो कुछ मैंने किया वह मेरी नजर में ठीक है? फिर बतौर पत्रकार पाठकों के आगे उनकी जिम्मेदारी का क्या होगा? बहरहाल, बहस को आगे बढ़ाते हुए पेश है अभिषेक की यह पोस्ट। )

2जी स्पेक्ट्रम घोटाले ने जहां एक ओर ए.राजा और नीरा राडिया को घसीटा है, तो वहीं दूसरी ओर मीडिया की कुछ नामचीन हस्तियां भी इसके लपेटे में दिख रही हैं। पहले यह स्पष्ट कर दूं मैं यहां किसी मीडियापर्सन को डिफेंड नहीं कर रहा हूं। मेरा भी स्पष्ट मानना है कि अगर कोई पत्रकार 2जी मामले में किसी तरह लिप्त है तो उसे सज़ा मिलनी ही चाहिए। मगर किसी पत्रकार द्वारा किसी और व्यक्ति से बातचीत में उसकी हां में हां मिलाने पर उसे सांठगांठ का दोषी ठहराना मुझे ज्यादती लगता है। खासकर इसलिए कि मैं खुद भी पत्रकार हूं और मैंने खुद कई बार ऐसी स्थितियां फेस की हैं - जब मैं खुद किसी राजनीतिज्ञ से बात करता हूं तो बातचीत जारी रखने के लिए कई बार हमें उनकी हर सही और कभी-कभी (मेरी नज़र में) गलत बात पर भी हामी भरनी पड़ती है।
खबर निकालने के लिए जरूरी है आपकी संबंधित पक्षों से गपशप हो और गपशप में जो कुछ बात हो रही है, जरूरी नहीं है कि आप उससे सहमत हो, पर गपशप बनाए रखने के लिए आप ऐसी बातों पर भी हां-हां-हुं-हुं करते रहते हैं क्योंकि उनसे बहस करके आप बात को तोड़ना या किसी और दिशा में मोड़ना नहीं चाहते। उदाहरण के लिए अगर मैं गिलानी से बात करूं और वह कहें कि भारत सरकार कश्मीरियों से अन्याय कर रही है और मैं उनसे बात निकलवाने के लिए हां-हां-हुं-हुं करूं तो इसका यह मतलब नहीं हुआ कि मैं उनकी बात से सहमत हूं। इसी तरह कई कई बार ऐसा भी होता है कि जो सोर्स आपको लगातार खबर दे रहा है, वह आपसे उस खबर में कुछ शब्द अपने लिए भी डलवाना चाहता है। यहां पर पत्रकार विवेकानुसार काम करता है। अगर वे चंद शब्द ऐसे हैं जिनसे किसी और का डायरेक्ट या इनडायरेक्ट फायदा या नुकसान नहीं होता, तो उसे जाने भी देता है। ऐसा करना इसलिए भी जरूरी होता है ताकि भविष्य में वह सोर्स आपके फिर काम आता रहे। फिर दोहरा रहा हूं कि मैं यह नहीं कह रहा कि मीडिया सौ प्रतिशत पाक-साफ है, लेकिन किसी भी जजमेंट पर पहुंचने से पहले सिक्के के दोनों पहलुओं की जांच जरूरी है। लेकिन साथ ही मेरा मानना है कि हर 'वीर' पत्रकार को (वीर इसलिए लिख रहा हूं कि पत्रकारों के लिए काजल की कोठरी से बेदाग निकलना किसी वीरता भरे काम से कम नहीं है) बिना किसी डर से अपना काम जारी रखना चाहिए। हमेशा याद रखिए कि यदि आपकी आत्मा आपको सही होने का सर्टिफिकेट देती है तो फिर दुनिया के सर्टिफिकेट की चिंता मत कीजिए क्योंकि कुछ तो लोग कहेंगे, लोगों का काम है कहना...।

हां, लेकिन राडिया कांड हमें यह सीख जरूर देता है कि अपने सोर्स के बात करते हुए हमें अधिक से अधिक सावधानी बरतनी चाहिए। बाकी द्वारिकाप्रसाद माहेश्वरी जी की लिखी यह कविता फॉलो करते रहें-वीर तुम बढ़े चलो
धीर तुम बढ़े चलो
सामने पहाड़ हो
सिंह की दहाड़ हो
तुम निडर, हटो नहीं
तुम निडर, डटो वहीं
वीर तुम बढ़े चलो
धीर तुम बढ़े चलो
प्रात हो कि रात हो
संग हो न साथ हो
सूर्य से बढ़े चलो
चंद्र से बढ़े चलो
वीर तुम बढ़े चलो
धीर तुम बढ़े चलो
(नवभारत टाइम्स के ब्लॉग 'रू-ब-रू जिंदगी' से साभार)

Sunday, 5 December 2010

कटघरे में वीर और बरखा ही नहीं, हम सब हैं

प्रणव प्रियदर्शी

बरखा दत्त, वीर सांघवी और प्रभु चावला - इन तीनों वरिष्ठ पत्रकारों ने अपनी पत्रकारीय गतिविधियों के जरिए जितना योगदान इस क्षेत्र में किया है, उससे ज्यादा योगदान अपनी हाल में सामने आई गैरपत्रकारीय गतिविधियों से कर दिया। भले तात्कालिक तौर पर लग रहा हो कि इनकी विवादित गतिविधियों ने पत्रकारिता को लांछित किया है, सच यह है कि इस विवाद से ये तीनों चाहे जितने भी दागदार या बेदाग निकलें - यह प्रक्रिया निश्चित तौर पर पत्रकारिता को साफ करेगी। सच है कि नीरा राडिया टेप प्रकरण में शामिल पत्रकारों की सूची बहुत लंबी है, फिर भी इन तीन पत्रकारों की चर्चा सबसे ज्यादा हो रही है तो इससे यह भी पता चलता है कि ये तीनों पत्रकार कद और स्टार वैल्यू के मामले में बाकी पत्रकारों से बहुत आगे हैं।

बड़े औद्योगिक घरानों की घोषित लॉबीस्ट नीरा रडिया से बातचीत के जो टेप सामने आए हैं, यह मानना पड़ेगा कि उनसे इन तीनों वरिष्ठ पत्रकारों की विश्वसनीयता को लेकर सवाल खड़े हो गए हैं। प्रभु चावला उस बातचीत में नीरा के सामने इस बात के लिए परेशान दिखते हैं कि मुकेश अंबानी उनको भाव नहीं दे रहे। वे इस बात को लेकर आश्वस्त हैं कि अदालतों के फैसले फिक्स होते हैं। वह नीरा से यह भी कहते हैं कि मुकेश को वह (प्रभु) बता सकते हैं कि अदालत से मनचाहे फैसले के लिए उन्हें किससे बात करनी चाहिए, पर मुकेश उनसे बात तो करें।

वीर सांघवी और बरखा दत्त की नीरा से बातचीत अपेक्षाकृत ज्यादा पत्रकारीय है। वीर को नीरा यह निर्देश देती मालूम होती हैं कि उन्हें अपने कॉलम में क्या लिखना है और कैसे लिखना है। वीर भी पूरी निष्ठा से यह निर्देश लेते नजर आते हैं। अगर बात इतनी ही है, तब भी खुद वीर भले कहें कि यह एक सूत्र को विश्वास में लेने का उनका तरीका था, पाठकों के लिए यह जानकारी जरूर चोट पहुंचाने वाली है कि जिस कॉलम को वे पूरी श्रद्धा से पढ़ते रहे हैं, उसका लेखक एक औद्योगिक समूह की लॉबीस्ट के सामने इस तरह साष्टांग दंडवत मुद्रा में होता है।

पर, बात इतनी ही नहीं है। आरोप यह भी है कि नीरा के लिए वीर ने अपने संपर्कों का इस्तेमाल किया। पत्रकार के रूप में उनका विभिन्न नेताओं पर जो प्रभाव था, उनकी जो पहुंच थी उसका पूरा-पूरा फायदा उन्होंने नीरा राडिया को लेने दिया।
यही आरोप बरखा दत्त पर भी है। बरखा कह रही हैं कि वह अपने सूत्र से खबर निकालने की कोशिश कर रही थीं। मगर, कई सवाल उनके इस दावे को सच मानने में रोड़ा बन कर खड़े हैं। क्या एक पत्रकार की राजनीतिक खबरों का सूत्र किसी औद्योगिक घराने का लॉबीस्ट हो सकता है? यह भी पूछा जा रहा है कि जब नीरा से बातचीत में साफ हो गया कि टाटा की घोषित प्रतिनिधि नीरा सरकार गठन की प्रक्रिया को प्रभावित करने की कोशिश कर रही है, तो बरखा को क्या यह बात अपने आप में कोई खबर नहीं महसूस हुई? तीसरी बात इन टेपों में बरखा दत्त नीरा से जानकारी लेती नहीं बल्कि नीरा को जानकारी देती दिखती हैं। वह नीरा के संदेशवाहक की भूमिका में नजर आती हैं।

सवाल यह है कि क्या किसी पत्रकार को यह हक है कि जनहित में समाचार इकट्ठा करने और प्रसारित करने की प्रक्रिया के दौरान उसका विभिन्न नेताओं से जो संपर्क होता है उसका फायदा वह किसी औद्योगिक घराने की लाबीस्ट को लेने दे। और यहां तो आरोप यह नहीं है कि वीर या बरखा का फायदा नीरा ले रही थीं, आरोप यह है कि नीरा का फायदा ये दोनों ले रहे थे। उसे इंप्रेस करने, उसके निर्देशों का पालन करने में ये दोनों लगे थे।

जिसे लाख टके का सवाल बताया जा रहा है वह यह है कि क्या इस मामले में कैश की कोई भूमिका थी? कसौटी इसी सवाल को बनाया जा रहा है, यह कहते हुए कि अगर यह सब पैसों के लिए किया जा रहा था तब तो कोई सफाई नहीं चलेगी। लेकिन, अगर पैसों का लेन-देन नहीं हुआ है तब इतनी हाय-तौबा मचाने का कोई मतलब नहीं।
मगर, पत्रकारिता की विश्वसनीयता के संदर्भ में देखें तो यह कसौटी कारगर नहीं है। जरूरी नहीं कि एहसानों का आदान प्रदान सिर्फ कैश में हो। हम जानते हैं कि इसके और भी कई तरीके हो सकते हैं, होते हैं।

जिस सवाल का जवाब इन वरिष्ठ पत्रकारों को देना है वह यह नहीं है कि उन्होंने नीरा के निर्देशों के पालन के बदले में कैश लिया या नहीं। सवाल यह है कि क्या ये कथित निर्देश और उनका पालन उनके पत्रकारीय दायित्वों के निर्वाह के लिए जरूरी थे? क्या कोई पत्रकार नीरा राडिया जैसे तत्वों से निर्देश लिए और इन निर्देशों का पालन किए बगैर प्रभावी रिपोर्टिंग नहीं कर सकता?

इन सवालों का जवाब उक्त पत्रकारों को ही नहीं, पत्रकारिता जगत को भी देना है ताकि आम पाठक उन जवाबों की रोशनी में पत्रकारिता और पत्रकार के बारे में अपनी नई समझ बना सके।

Friday, 10 September 2010

Media instinctively toes the ruling establishment

Anil Sinha
Only a fortnight ago, Nobel Laureate Amartya Sen was in Delhi to attend a meeting on revival of Nalanda University, a dream project of Bihar government. The Human Resources Ministry had rightly organized a lecture on ‘Centrality of Literacy’. I think Sen himself had given the title of the topic. For the first time, I found the power of knowledge can not compete with the massive apparatus of the ruling regime. And, the truth loses its power to defeat establishment unless it is made a people’s instrument. The establishment is capable of stopping to spread at least for the time being.

That morning, information of the program appeared in most of the important newspapers. But very few of them were present to cover it. The newsworthiness of the program was more than evident by the fact that Prime Minister Manmohan Singh was chairing the program and Human Resources Minister Kapil Sibal and Minister of State for Human Resources D Purandeshwari were other important participants. I wondered why no important media house was represented! It is common knowledge that Kapil Sibal alone can pull a media crowd. Here, Prime Minister too was there to help him in this endeavor. When I saw next morning newspapers, I found news was largely ignored by the media. It was a real surprise for me. I was not prepared to accept that Amartya Sen has no news value.

It really took sometime for me to gather some strength to analyze the absence of media in such an important program As the news industry is concerned it was an important program. All of us have been hearing debate on news value versus value based news for quite sometime now. Here there wa hardly any dichotomy. Amartya was really at his best in opening various doors of elementary education. Sen has never been a revolutionary thinker as far as the question of overthrowing of state power is concerned. I have never heard him suggesting against globalization either. But he never hesitates to suggest radical reforms within the system.

In his address on literacy, he did not hesitate to suggest the Prime Minister that the program to make elementary education universal should be completely state financed. He suggested that no school should be run on the basis of religion-Hindu school and Muslim school. He attacked single identity, private tuitions and overburdening of pupil. He emphasized how literacy and knowledge empower deprived sections including women. Al was spell bound. But like private media government websites also ignored the news. It had only flashed lecture of the prime minister. I do not believe that any of the Government Public Relation Officers might have advised media people to ignore the item. Then, what was it which prompted them to hear the inner voice of these officers?

Though it was late, I realized ultimately that media houses share the same model of elementary education as the government do. It is rooted in private schools and heavy curriculum. It includes school run on the basis of community and religion. It will be foolish on our part to think of an education system which is completely free from governmental interference and influence of money power. Similar is true for media.

Friday, 20 August 2010

नक्सलवाद पर मीडिया को गलत पाठ न पढ़ाएं

प्रणव प्रियदर्शी

आजकल तृणमूल नेता ममता बनर्जी, लेखिका अरुंधती राय, स्वामी अग्निवेश नक्सलियों के साथ बातचीत को लेकर चर्चा में हैं। इन सबके जरिए, खासकर अरुंधती रॉय के जरिए नक्सलवाद पर बुद्धिजीवियों और मीडिया जगत को गलत पाठ पढ़ाने की कोशिश चल रही है। गृह मंत्री पी. चिदंबरम और बीजेपी नेता अरुण जेटली से लेकर टीवी चैनलों पर आने वाले सुरक्षा विशेषज्ञ तक सभी इस बात का एलान करते दिखते हैं कि नक्सलियों को गौरवान्वित करने वाले ऐसे बुद्धिजीवियों को भी सबक सिखाने की जरूरत है। यह बात अलग-अलग तरीकों से जोर देकर दोहराई जा रही है कि नक्सलियों के खिलाफ मुहिम हर मोर्चे पर तेज की जानी चाहिए और यह कि नक्सलियों के समर्थन में किसी भी तरह के तर्क को सहन नहीं किया जाना चाहिए।

कुछ दिनों पहले नक्सलियों के ही मसले पर इससे मिलती-जुलती-सी बात आंध्र प्रदेश में भी उठी थी। तब आंध्र पुलिस ने पत्रकारों को सलाह दी थी कि वे नक्सली नेताओं से इंटरव्यू न लें, बल्कि अगर उनके पास नक्सली नेताओं के बारे में कोई सूचना हो तो वे पुलिस को दें। आंध्र के पत्रकारों ने इस सलाह पर कड़ा एतराज जाहिर करते हुए कहा था कि हम पुलिस के इन्फॉर्मर नही हैं। पत्रकार का काम पुलिस को नही, बल्कि जनता को इन्फॉर्म करना होता है। इसीलिए बेहतर यही होगा कि पुलिस नक्सलियों को पकड़ने का अपना काम करे और पत्रकारों को अपना काम करने दे।

यही वह बिन्दु है जो पत्रकारों को पुलिस से बुनियादी तौर पर अलग करता है। इसे ठीक से समझ लेना चाहिए। पुलिस इस तंत्र का एक हिस्सा है जिसका काम इस व्यवस्था को बनाए रखने में मदद करना है। वह सरकार के अधीन होती है, सरकार से ताकत लेती है। इसके विपरीत पत्रकार जनता से ताकत लेते हैं। बतौर कर्मचारी बेशक वे अपने संस्थान के मालिक या मैनेजमेंट से बंधे होते हैं, पर जहां तक उनके पत्रकारीय दायित्वों की बात है तो उसकी आखिरी कसौटी हमेशा पाठक-दर्शक ही होते हैं।

लोकतंत्र में संप्रभुता जनता में निहित होती है और पत्रकार सीधे जनता को रिपोर्ट करते हैं। इसीलिए सरकार की नाराज़गी से उनकी सेहत पर ख़ास फर्क नही पङता। अरुण शौरी जैसे पत्रकार अगर प्रधान मंत्री की नाराजगी मोल लेते हुए भी शान से पत्रकारिता करते रहे तो उसका कारण यही है कि जनता ने उनको मान्यता दी और तत्कालीन सरकार की मर्जी के ख़िलाफ़ दी। यही बात मौजूदा विवाद पर भी लागू होती है।

यहां सवाल यह नहीं है कि नक्सली कितने सही या गलत हैं और न ही यह कि क्या किसी भी सूरत में नक्सली हिंसा को जायज़ ठहराया जा सकता है? सवाल यह है कि नक्सलियों का जो भी कहना है वह सही है या गलत, इस पर आखिरी फैसला कौन करेगा? जवाब यह है कि ऐसे विचारधारात्मक मसलों का अंतिम फ़ैसला सरकार या सरकारी तंत्र के विवेक पर नही छोड़ा जा सकता। लोकतंत्र में, आपको अच्छा लगे या बुरा, पर इसका अंतिम फ़ैसला जनता के ही पास होता है। वह मौजूदा सरकार ही नही, संविधान तक के भविष्य पर विचार करके फैसला कर सकती है।

लेकिन इसी से लगा हुआ दूसरा सवाल यह है कि जब तक जनता अपना निर्णायक फैसला नहीं देती तब तक क्या किया जाए? क्या तब तक किसी ग्रुप या कथित पार्टी को जनता के नाम पर अराजकता फैलाने की छूट दे दी जाए? साफ है कि कोई भी सरकार ऐसी छूट नहीं दे सकती और न ही उसे ऐसी कोई छूट किसी को देनी चाहिए। इसीलिये यह व्यवस्था की गयी है कि पुलिस समेत शासन के तमाम अंग अपना काम करते रहें और पत्रकार भी इन तमाम चीजो के बारे में जनता को रिपोर्ट करते रहें।

समस्या तब पैदा होती है जब शासन या इसका कोई अंग (जैसे पुलिस) पत्रकारों को स्वतंत्र तरीके से अपना काम करने से रोकने की कोशिश करता है या अपनी वजहों से इसमे बाधा खड़ी कर देता है। अरुंधती के लेखन से या उनके स्टैंड से सहमत या असहमत होना अलग बात है और इस तथ्य को रेखांकित करना एकदम अलग कि मौजूदा लोकतांत्रिक व्यवस्था द्वारा खींची गई लक्ष्मण रेखा का उल्लंघन अरुंधती ने नहीं किया बल्कि वे लोग कर रहे हैं जो उनके लेखन को रोक देना चाहते हैं।